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________________ गा० १३-१४ ] अत्थाहियारणिसो १९१ १६१. 'संजमे' इदि विसयसत्तमी, तेण संजमे 'संजमविसए' इदि घेत्तव्वं । 'उवसामणा खवणा' इदि जदि वि सामण्णेण वृत्तं तो वि चरितमोहणीयस्सेत्ति संबंधो कायन्वो; अण्णस्सासंभवादो । तेण चारित्तमोहणीयस्स उवसामणा णाम तेरसमो अत्थाहियारो । कुदो ? तेरसअकट्टवणण्णहाणुववत्तीदो १३ । चारित्तमोहक्खवणा णाम चोसमो अत्याहियारो । कथं गव्वदे ? चोद्दस अंकादो १४ । * 'दंसणचरित्तमोहे' त्ति पदपरिवरणं । $ १६२. 'दंसणचरितमोहे' त्ति जो गाहासुत्तावयवो ण सो वत्तव्वो तेण विणा वि तद्वावगमादो । तं जहा, अद्धापरिमाणणिद्देसो दंसणचरित्तमोहविसए कायव्वोत जाणावयुं ण वत्तव कसायपाहुडे दंसणचरितमोहणीयं मोत्तूण अण्णेसिं कम्माणं परूवणाभावेण अद्धापरिमाणणिद्देसो दंसणचरित्त मोहविसए चैव कायव्वोत्ति अवत्त $ १६१. 'संजमे' पदमें विषयार्थक सप्तमी विभक्ति है, इसलिये ' संजमे ' इसका अर्थ 'संयमके विषयमें' इसप्रकार लेना चाहिये । यद्यपि सूत्र में उपशामना और क्षपणा यह सामान्यरूपसे कहा है तो भी चारित्रमोहनीयकी उपशामना और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा इसप्रकार संबन्ध कर लेना चाहिये, क्योंकि संयमके विषयमें चारित्रमोहनीयकी उपशामना और क्षपणाको छोड़ कर और दूसरे की उपशामना और क्षपणा संभव नहीं है । अतः चारित्रमोहनी की उपशामना नामका तेरहवाँ अर्थाधिकार है, क्योंकि यदि इसे तेरहवाँ अर्थाधिकार न माना जावे तो 'चारित्त मोहणीयस्स उवसामणा च' इस पद के अन्त में तेरह के अंककी स्थापना नहीं बन सकती है । तथा चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नामका चौदहवाँ अर्धाधिकार है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- 'खवणा च' इस पद के अन्त में चौदहका अंक पाया जाता है इससे जाना जाता है कि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नामका चौदहवाँ अर्थाधिकार है । * गाथासूत्र में 'दंसणचरितमोहे' यह पद पादकी पूर्ति के लिये दिया गया है । 8१६२. शंका- 'दंसणचरित्तमोहे' यह जो गाथासूत्रका अवयव है उसको नहीं कहना चाहिये, क्योंकि उस पदको दिये बिना भी उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- यदि कहा जाय कि दर्शनमोह और चारित्रमोह के विषय में अद्धापरिमाणका निर्देश करना चाहिये इसका ज्ञान करानेके लिये 'दंसणचरित्तमोहे' यह पद दिया गया है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कषायप्राभृत में दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयको छोड़कर दूसरे कर्मोंकी प्ररूपणा नहीं होनेके कारण अद्धापरिमाणका निर्देश दर्शनमोहatr और चारित्रमोहनीयके विषयमें ही किया गया है यह बिना कहे ही सिद्ध हो जाता (१) - पडिब - स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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