SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ भादो ३ | जो कम्मबंधो सो संकमो णाम । सो चउत्थो अत्थाहियारो । कुदो १ चुण्णिसुते चत्तारिअंकणिदेसादो ४ । * वेदए त्ति उदओ च ५ । उदीरणा च ६ । $ १५५. वेद ति एत्थ बे अत्थाहियारा । कुदो ? उदओ दुविहो, कम्मोदओ अकम्मोदओ चेदि । तत्थ ओकड्डणाए विणा पत्तोदयकम्मक्खंधी कम्मोदओ णाम । ओकट्टणवसेण पत्तोदयकम्मक्खंधो अकम्मोदओ णाम । एत्थ कम्मोदओ उदओ ि गहिदो । सो च पंचमो अत्थाहियारो । कुदो ! तत्थ पंचकुवलंभादो ५ । अकम्मोदओ उदीरणा णाम । सो छट्ठो अत्थाहियारो । कुदो : तत्थ छअंकदंसणादो ६ | 'वेदगे ' १ विशेषार्थ - मिथ्यात्व आदि कारणोंसे जो नूतन बन्ध होता है उसे यहाँ अकर्मबन्ध और संक्रमणको कर्मबन्ध कहा है । आगम में पुद्गलके जो तेईस भेद कहे हैं उनमें कार्मणवर्गणा नामक एकं स्वतन्त्र भेद भी है। वे कार्मणवर्गणाएं ही मिध्यात्व आदिके निमित्तसे आकृष्ट होकर कर्मरूप परिणत होती हैं । आत्मा के साथ इनका एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध होने के पहले इन्हें कर्मसंज्ञा नहीं प्राप्त हो सकती है । अतः नूतन बन्धको यहाँ अकर्मबन्ध कहा है । और बन्ध होनेके क्षणसे लेकर उन्हें कर्मसंज्ञा प्राप्त हो जाती है । अतः संक्रमणके द्वारा जो पुनः स्थिति आदि में परिवर्तन होकर उनका आत्मासे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होता है उसे कर्मबन्ध कहा है । इसप्रकार अकर्मबन्ध और कर्मबन्ध में भेद समझना चाहिये । शंका-बन्ध नामका तीसरा अधिकार है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- 'बंधो' इस पद के अन्तमें तीनका अंक पाया जाता है इससे प्रतीत होता है कि बन्ध नामका तीसरा अर्थाधिकार है । ऊपर जो कर्मबन्ध कह आये हैं उसीका सूत्रमें संक्रम पदके द्वारा ग्रहण किया है । वह चौथा अर्थधिकार है, क्योंकि चूर्णिसूत्रमें 'संकमो' पदके आगे चारका अंक पाया जाता है । * गाथामें आये हुए वेदक इस पदसे उदय नामका पाचवां अर्थाधिकार लिया है ५ । तथा उदीरणा नामका छठा अर्थाधिकार लिया है ६ । $ १५५. 'वेद' इस पदसे यहां पर दो अर्थाधिकार लिये गये हैं, क्योंकि उदय दो प्रकारका है - कर्मोदय और अकर्मोदय । उनमें अपकर्षणा के बिना जो कर्मस्कन्ध उदयरूप अवस्थाको प्राप्त होते हैं वह कर्मोदय है । तथा अपकर्षणके द्वारा जो कर्मस्कन्ध उदयरूप अवस्थाको प्राप्त होते हैं वह अकर्मोदय है । यहाँ उदय पदसे कर्मोदयका ग्रहण किया है । वह पाँचवाँ अर्थाधिकार है, क्योंकि 'उदओ' इस पदके आगे पाँचका अंक पाया जाता है । उदीरणा पदसे अकर्मोदयका ग्रहण किया है । यह छठा अर्थाधिकार है, क्योंकि 'उदीरणा' इस पद के आगे छहका अंक देखा जाता है । 'वेदक' यह पद भी यहाँ कर्तृनिर्देशरूप नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy