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________________ १७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेजदोसविहत्ती १४०. एदासिं दोण्हं गाहाणमत्थो वुचदे । तं जहा, अंतरकरणे कदे संकामओ णाम होइ । तम्मि संकामयम्मि चत्तारि मूलगाहाओ होति । तत्थ 'संकामणपट्टवयस्स किंढिदिगाणि पुव्वबद्धवाणि०' एसा पढममूलगाहा । एदिस्से पंच भासगाहाओ । ताओ कदमाओ? 'संकामयपवयस्स.' एस गाहा पहुडि जाव 'संकेतम्मि य णियमा०' एस गाहेत्ति ताव पंच भासगाहाओ होति ५। 'संकॉमणपट्टवओ०' एदिस्से संकामयविदियगाहाए तिणि अत्था । तत्थ 'संकामणपट्टवओ के बंधदि' ति एदम्मि पढमे अत्थे तिणि भासाहाओ होति । ताओ कदमाओ ? 'वस्ससदसहस्साई हिदिसंखा०' एस गाहा पहुडि जाव 'सव्वावरणीयाणं जेसिं०' एस गाहेत्ति ताव तिण्णिभासगाहाओ होंति ३ । 'के च (व) वेदयदे अंसे' एदम्मि विदिए अत्थे दो भासगाहाओ होति । ताओ कदमाओ ? 'णिद्दा य णीयगोदं०' एस गाहा पहुडि जाव 'वेयम्मि (वेदे च) वेयणीए०' एस गाहेत्ति ताव बे भासगाहाओ होंति २। 'संकामेदि य के के०' एदम्मि तदिए अत्थे छब्भासगाहाओ होति । ताओ कदमाओ ? 'सव्वस्स मोहणिज्जस्स आणुपुव्वी य संकमो होइ०' एस गाहा पहुडि जाव 'संकोमयपट्टवओ०' एस गाहेत्ति ताव छब्भासगाहाओ ६। "बंधो व संकमो वा०' एदिस्से तदियमूलगाहाए १४०. अब इन दोनों गाथाओंका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-नौवें गुणस्थानमें अन्तरकरणके करने पर जीव संक्रामक कहा जाता है। उस संक्रामकके वर्णनमें चार मूल गाथाएं हैं। उनमेंसे 'संकामणपट्ठवगस्स किंहिदिगाणि पुत्वबद्धाणि०' यह पहली मूल गाथा है। इसकी पांच भाष्यगाथाएं हैं। वे कौनसी हैं ? 'संकामयपट्टवगस्स०' इस गाथासे लेकर 'संकंतम्मि य णियमा०' इस गाथा तक पांच भाष्यगाथाएं हैं। 'संकामणपट्ठवओ०' संक्रामकसंबन्धी इस दूसरी गाथाके तीन अर्थ हैं। उन तीनों अर्थोंमेंसे 'संकामणपट्ठवओ के बंधदि०' इस पहले अर्थ में तीन भाष्यगाथाएं हैं। वे कौनसी हैं ? 'वस्ससदसहस्साई हिदिसंखा०' इस गाथासे लेकर 'सव्वावरणीयाणं जेसिं०' इस गाथा तक तीन भाष्यगाथाएं हैं। 'के च वेदयदे अंसे०' इस दूसरे अर्थमें दो भाष्यगाथाएं आई हैं। वे कौनसी हैं ? 'णिहा य णीयगोदं०' इस गाथासे लेकर 'वेदे च वेयणीए.' इस गाथातक दो भाष्यगाथाएं हैं। 'संकामेदि य के के०' इस तीसरे अर्थमें छह भाष्यगाथाएं आई हैं। वे कौनसी हैं ? 'सव्वस्स मोहणिज्जस्स आणुपुव्वी य संकमोहोइ०' इस गाथासे लेकर 'संकामयपट्ठवओ०' इस गाथा तक छह भाष्य गाथाएं हैं। 'बंधो व संकमो वा०' संक्रामकसंबन्धी इस तीसरी (१) सूत्रगाथाङ्कः १२४। (२)-ट्ठिदियाणि अ०, स०। (३) सूत्रगाथाङ्कः १२५। (४) सूत्रगाथाङ्क: १२९। (५) सूत्रगाथाङ्कः १३०। (६)-गाहा हों-अ० । (७) सूत्रगाथाङ्कः १३१। (८) सूत्रगाथाङ्कः १३३। (8) सूत्रगाथाङ्कः १३४। (१०) सूत्रगाथाङ्कः १३५। (११) सूत्रगाथाङ्कः १३६। (१२) सूत्रगाथाङ्कः १४०। (१३) सूत्रगाथाङ्कः १४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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