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________________ १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ प्पहुडि छग्गाहाओ देसणचरित्तमोहअद्धापरिमाणम्मि पडिबद्धाओ अत्थि, तेण अद्धापरिमाणणिद्देसेण अत्थाहियारेसु पण्णारसमेण होदव्वमिदि; ण; एदासिं छण्हं गाहाणं असीदिसदगाहासु पण्णारसअत्थाहियारणिबद्धासु अभावादो। जेण 'दंसणचारतमोहअद्धापरिमाणणिद्देसो पण्णारसेसु वि अत्थाहियारेसु णियमेण कायव्यो' त्ति गुणहरभडारएण अंतदीवयभावेण णिदिहो तेणेसो पण्णारसमो अत्थाहियारोण होदि त्ति घेत्तव्वं। तदो पुव्वुत्तमेलाइरियभडारएण उवइडवक्खाणमेव पहाणभावेण एत्थ घेत्तव्यं । शंका-'आवलियमणायारे०' इस गाथासे लेकर छह गाथाएँ दर्शनमोह और चारित्रमोहसंबंधी अद्धापरिमाण नामके अर्थाधिकारसे संबन्ध रखती हैं, इसलिये अर्थाधिकारोंमें अद्धापरिमाण निर्देशको पन्द्रहवां अर्थाधिकार होना चाहिये ? । समाधान-नहीं, क्योंकि पन्द्रह अर्थाधिकारोंसे संबन्ध रखनेवाली एकसौ अस्सी गाथाओंमें 'आवलियमणायारे०' इत्यादि छह गाथाएं नहीं पाई जाती हैं। चूंकि दर्शनमोह और चारित्रमोहसंबन्धी अद्धापरिमाणका निर्देश पन्द्रहों अर्थाधिकारोमें नियमसे करना चाहिये यह बतलानेके लिये गुणधर भट्टारकने उसका अन्तदीपकरूपसे निर्देश किया है, इसलिये यह पन्द्रहवाँ अर्थाधिकार नहीं हो सकता है, यह अभिप्राय यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अतः भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त व्याख्यान ही यहाँ पर प्रधानरूपसे ग्रहण करना चाहिये। विशेषार्थ-पन्द्रह अर्थाधिकारोंके नामों का निर्देश करनेवाली 'पेज्जदोसविहत्ती' इत्यादि दो गाथाओंमें अन्तिम पद 'अद्धापरिमाणणिदेसो' है। इससे कितने ही आचार्य इसे पन्द्रहवां स्वतंत्र अर्थाधिकार मान लेते हैं। पर यदि दर्शनमोहकी उपशामना और दर्शनमोहकी क्षपणा ये दो स्वतंत्र अधिकार रहते हैं तो अधिकारोंकी संख्या सोलह हो जाती है। इसलिये वे आचार्य 'अधिकारोंकी संख्या सोलह न हो जाय' इस भयसे दर्शनमोहकी' उपशामना और दर्शनमोहकी क्षपणा इन दोनोंको मिलाकर एक ही अर्थाधिकार मानते हैं। पर यदि इस व्यवस्थाको ठीक माना जाय तो 'गाहासदे असीदे' इस प्रतिज्ञा वाक्यके अनुसार अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छह गाथाएं भी १८० गाथाओंमें आ जानी चाहिये थीं, क्योंकि कसायपाहुडका अद्धापरिमाण निर्देश नामक पन्द्रहवां स्वतंत्र अधिकार हो जानेसे उसका कथन करनेवाली गाथाओंका भी कसायपाहुडके विषयका प्रतिपादन करनेवाली १८० गाथाओंमें समावेश होना योग्य ही था। पर जिसलिये उनका १८० गाथाओंमें समावेश नहीं किया है इससे प्रतीत होता है कि अद्धापरिमाणनिर्देश नामका पन्द्रहवाँ स्वतन्त्र अधिकार नहीं है, किन्तु वह पन्द्रह अधिकारोंमें सर्व साधारण अधिकार है, इसलिए 'अद्धापरिमाणणिदेसो' इस पदके द्वारा अन्तमें उसका उल्लेख किया है। इसप्रकार विचार करने पर दर्शनमोहकी उपशामना और दर्शनमोहकी क्षपणा ये दो स्वतन्त्र अधिकार हैं यह सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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