SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? यद्यपि गुणधर आचार्यको ये स्वतंत्र अधिकार इष्ट नहीं थे यह बात अर्थाधिकारोंके नामोंका निर्देश करनेवाली गाथाओंसे ही प्रकट हो जाती है। पर उन्होंने जो पेजदोषविभक्तिके अनन्तर प्रकृतिविभक्तिका और अनुभागविभक्तिके अनन्तर प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिकका उल्लेख किया है इससे किनका किनमें अन्तर्भाव आदि करना ठीक होगा इसका संकेत अवश्य मिल जाता है और इसी आधारसे वीरसेन स्वामीने ऊपर अन्तर्भावके तीन विकल्प सुझाये हैं। पहले विकल्पके अनुसार वीरसेनस्वामीने प्रकृतिविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन चारोंका ही स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति नामक दोनों अर्थाधिकारोंमें अन्तर्भाव किया है, क्योंकि प्रकृति और प्रदेशादिके विना स्थिति और अनुभाग स्वतन्त्र नहीं पाये जाते हैं। दूसरे विकल्पके अनुसार प्रकृतिविभक्तिका पेजदोषविभक्तिमें अन्तर्भाव किया है, क्योंकि द्रव्य और भावरूप पेजदोषको छोड़कर प्रकृति स्वतन्त्र नहीं पाई जाती है। तथा शेष तीनोंका स्थिति और अनुभागमें अन्तर्भाव किया है। तीसरे विकल्पके अनुसार वीरसेन स्वामीने मूल व्यवस्थामें ही थोड़ा परिवर्तन कर दिया है। इस व्यवस्थाके अनुसार वीरसेनस्वामी प्रकृतिविभक्तिको तो पेजदोषविभक्तिमें अन्तर्भूत कर लेते हैं पर शेष तीनको किसीमें भी अन्तर्भूत न करके उनका 'अणुभागे च' यहाँ आये हुए 'च' शब्द के बलसे चौथा स्वतन्त्र अर्थाधिकार मान लेते हैं। तथा बन्धक पदकी पुन: आवृत्ति न करके बन्ध और संक्रम इन दोके स्थानमें बन्धक नामका एक ही अर्थाधिकार मानते हैं। इन तीनों विकल्पोंमेंसे पहलेके दो विकल्पोंके अनुसार अर्थाधिकारोंके पूर्वोक्त पांचों नामोंमें कोई अन्तर नहीं पड़ता है। पर तीसरे विकल्पके अनुसार अर्थाधिकारोंके पेजदोषविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेश-झीणाझीण-स्थित्यंतिकविभक्ति और बन्ध ये पांच नाम हो जाते हैं। इस नामपरिवर्तनका कारण 'पेजदोसविहत्ती' इत्यादि गाथामें पांचवें अर्थाधिकारके नामके स्पष्ट उल्लेखका न होना है। जब 'बंधगे च' इस पदकी पुनः आवृत्ति करते हैं तब संक्रम नामका स्वतन्त्र अर्थाधिकार बनता है और जब 'बंधगे च' इस पदकी पुनः आवृत्ति न करके 'अणुभागे च' में आये हुए 'च' शब्दसे अनुक्तका ग्रहण करते हैं तब अनुभागविभक्ति और बन्धकके बीचमें आये हुए प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन तीनोंका एक स्वतन्त्र अर्थाधिकार सिद्ध हो जाता है। इनमेंसे झीणाझीण और स्थित्यन्तिकको छोड़कर पेजदोषविभक्ति आदिका अर्थ सुगम है। झीणाझीण और स्थित्यन्तिक ये दोनों अर्थाधिकार प्रदेशविभक्ति नामक अर्थाधिकारके चूलिकारूपसे ग्रहण किये गये हैं। झीणाझीणमें 'किस स्थितिमें स्थित प्रदेशाग्र उत्कर्षण तथा अपकर्षणके योग्य या अयोग्य हैं' इसका विशदता से वर्णन किया गया है । तथा स्थितिक या स्थित्यन्तिक नामक अर्थाधिकारमें उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र कितने हैं, जघन्य स्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र कितने हैं, इत्यादिका वर्णन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy