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________________ प्रस्तावना नाम का १ ग्रन्थपरिचय १ कषायप्राभूत प्रस्तुत ग्रन्थका नाम कसायपाहुड है जिसका संस्कृत रूप कषायप्राभृत होता है। यह नाम इस ग्रन्थकी प्रथम गाथामें स्वयं ग्रन्थकारने ही दिया है । तथा चूर्णिसूत्रकारने भी अपने चूर्णिसूत्रोंमें इस नामका उल्लेख किया है । जैसे-' कसायपाहुडे सम्मत्तेति अणियोगहारे' आदि। जयधवलाकारने भी अपनी जयधवला टीकाके प्रारम्भमें कसायपाहुडका नामोल्लेख करते हुए उसके रचयिताको नमस्कार किया है । श्रुतावतारके कर्ता आचार्य इन्द्रनन्दिने भी इस ग्रन्थका यही नाम दिया है। अतः प्रस्तुत ग्रन्थका कसायपाहुड या कषायप्राभृत नाम निविवाद है। ___ इस ग्रन्थका एक दूसरा नाम भी पाया जाता है। और वह नाम भी स्वयं चूर्णिसूत्रकारने अपने चूर्णिसूत्रमें दिया है। यथा, " तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जाणि। तं जहा, पेज्जदोसपाहुडे त्ति _____वि कसायपाहुडे त्ति वि"। अर्थात् उस प्राभृतके दो नाम हैं-पेजदोषप्राभृत और कषायप्राभूत '2' कषायप्राभृत । इस चूर्णिसूत्रकी उत्थानिकामें जयधवलाकार लिखते हैं- 'पेज्जं ति __ पाहुडम्मि दु हदि कसायाण पाहुडं णाम-पहली गाथाके इस उत्तराद्ध में ग्रन्थकारने इस तर ग्रन्थके दो नाम बताये हैं-पेज्जदोषप्राभृत और कषायप्राभृत । ये दोनों नाम किस अभिप्रायसे बतलाये गये हैं, यह बतलानेके लिये यतिवृषभाचार्य दो सूत्र कहते हैं।। जयधवलाकारकी इस उत्थानिकासे यह स्पष्ट है कि उनके मतस स्वयं ग्रन्थकारने ही प्रकृत ग्रन्थके दोनों नामोंका उल्लेख पहली गाथाके उत्तरार्द्ध में किया है। यद्यपि पहली गाथाका सीधा अर्थ इतना ही है कि-'ज्ञानप्रवाद नामक पांचवे पूर्वकी दसवीं वस्तुमें तीसरा पेज्जप्राभृत है उससे कषायप्राभृतकी उत्पत्ति हुई है। तथापि जब चूर्णिसूत्रकार स्पष्ट लिखते हैं कि उस प्राभृतके दा नाम हैं तब वे दोनों नाम निराधार तो हो नहीं सकते हैं। अतः यह मानना पड़ता है कि पहली गाथाके उत्तराधके आधार पर ही चूर्णिसूत्रकारने इस ग्रन्थके दो नाम बतलाये हैं और इस प्रकार इन दोनों नामोंका निर्दश पहली गाथाके उत्तगर्द्ध में स्वयं ग्रन्थकारने ही किया है, जैसा कि जयधवलाकारकी उक्त उत्थानिकासे स्पष्ट है । इन्द्रनन्दिने भी ' प्रायोदोषमाभृतकापरसंशं' लिखकर कषायप्राभृतके इस दूसरे नामका निर्देश किया है। इस प्रकार यद्यपि इस ग्रन्थके दो नाम सिद्ध हैं तथापि उन दोनों नामोंमेंसे कषायप्राभृत नामसे हो यह ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है और यही इसका मूल नाम जान पड़ता है। क्योंकि चूर्णिसूत्रकारने अपने चूर्णिसूत्रोंमें और जयधवलाकारने अपनी जयधवला टीकामें इस ग्रन्थका इसी नामसे उल्लेख किया है। जैसा कि हम ऊपर बतला आये हैं। धवला टीकामें तथा लब्धिसारकी टीकामें भी इस ग्रन्थका इसी नामसे उल्लेख है। पेज्जदोषप्राभृत इसका उपनाम जान पड़ता है जैसा कि इन्द्रनदिके 'प्रायोदोषप्राभृतकापरसंज्ञं' विशेषणसे भी स्पष्ट है। अतः इस ग्रन्थका मूल और प्रसिद्ध नाम कषायप्राभृत ही समझना चाहिये । अष्टम निन्हवका उल्लेख मान लेते तो उनके काल्पनिक इतिहासकी भित्ति खड़ी न हो पाती। किन्तु अब तो मुनि जीको उसके स्वीकार करनमें संकोच न होना चाहिए। क्योंकि अब नियुक्तियोंका कर्ता दूसरे भद्रबाहुको कहा जाता है। (२) श्रव० भ० महा० पृ० २८९ । (१) कसायपा० पृ० १० । (२) कसायपा० प्रे० का० पृ० ६०७५ । (३) कसायपा० पृ० ४। (४) श्लो० १५२ । (५) कसायपा० पृ० १९७ । (६) श्रुताव० श्लो० १५२ । (७) षट्खण्डा०, पु. १ पृ. २१७ मौर २२१ । (८) प्रथम गाथाको उत्थानिका में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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