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________________ ८६ गा० १ ] सुदरखंधपमाणपरूवणं ७०. कथं संखापमाणस्स एत्थ संभवो ? ; वण्णे पदाणि पदत्थे च अस्सिदूण । तं जहा, सुदणाणे पादेकवण्णसमूहो चउसंही ६४। एदेहितो उप्पण्णसंजोगक्खराणि जत्तियाणि तत्तियमेत्ताणि सयलसुदणाणक्खराणि । किं पमाणं तेसिं ? एयलक्ख-चउरासीदिसहस्स-चत्तारिसद-सत्तसष्टिकोडाकोडीओ चोदालीसलक्ख-सत्तसहस्स-तिण्णिसयसत्तरिकोडीओ पंचाणवुइलक्ख-एक्कावण्णसहस्स-छस्सय-पण्णारसमेत्ताणि सयलसुदणाणक्खराणि । उत्तं च "पंचेक छक्क एक य दु-पंच णव सुण्ण सत्त तिय सत्त । ___ सुण्ण दु-चउक्क सत्त छ चदु चदु अढेक्क सुदवण्णा ॥३३॥" १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ । ७०. शंका-श्रुतमें संख्या प्रमाण कैसे संभव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि द्रव्यश्रुतसंबन्धी वर्ण, पद और वर्ण तथा पदोंके द्वारा कहे गये पदार्थोंका आश्रय करके श्रुतमें संख्याप्रमाण संभव है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं श्रुतज्ञानमें असंयोगी समस्त वर्णोंका समुदाय चोंसठ है। इनके निमित्तसे जितने संयोगी अक्षर उत्पन्न होते हैं असंयोगी वर्णसहित उतने श्रुतज्ञानके अक्षर हैं। शंका-उन अक्षरोंका प्रमाण कितना है ? समाधान-एक लाख चौरासी हजार चारसौ सड़सठ कोड़ाकोड़ी, चवालीस लाख सात हजार तीनसौ सत्तर करोड़, पंचानवे लाख, इक्कावन हजार, छहसौ पन्द्रह सकल श्रुतज्ञानके अक्षर हैं। कहा भी है “पाँच, एक, छह, एक, दो बार पाँच, नौ, शून्य, सात, तीन, सात, शून्य, दो बार चार, सात, छह, चार, चार, आठ और एक इन अंकोंको वामक्रमसे रखने पर अर्थात् १८४४६७, ४४०७३७०, १५५.१६१५ इतने श्रुतज्ञानके अक्षर हैं ॥३३॥" विशेषार्थ-अ, इ, उ, ऋ, लू, ए, ऐ, ओ और औ ये नौ स्वर ह्रस्व, दीर्घ और प्लुतके भेदसे सत्ताईस प्रकारके होते हैं। कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग इसप्रकार पच्चीस तथा य, र, ल, व, श, ष, स और ह ये आठ इसप्रकार कुल मिलकर तेतीस व्यञ्जन (१) "काणि चउठि अक्खरा दे-कादिहकारांता तेत्तीसवण्णा, विसज्जणिज्जजिब्भामुलियाणुस्सारुवधुमाणिया चत्तारि, सरासत्तावीसा हरसदीहपधभेएण एक्केक्कम्हि सरे तिणं सराणमवलंभादो। एदे सव्वे वि वण्णा चउसट्ठी हवंति ।"-ध० आ० ५० ५४६ । "तेत्तीस वेंजणाई सत्तावीसा सरा तहा भणिया। चत्तारि य जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाओ ॥"-गो० जीव० गा० ३५२। (२) "चउसठिपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा । रूऊणं च कए पुण सुदणाणस्सऽवखरा होति ॥"-गो० जीव० गा० ३५३ । (३) "सहस्सचदुसद'.."-ध० आ० ५० ५४६ । (४)-णवइ अ०, आ० । (५) ध० आ० ५० ५४६ । (६) “एकट्ठ च च य छस्सत्तयं च च य सुण्ण सत्त तियसत्ता । सूण्णं णव णव पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च ॥"-गो० जीव० गा० ३५४ । "पण दस सोलस पण पण णव णभ सग तिण्णि चेव सगं । सुपणं चउ चउ सगछचउचउअठेक्कसव्वसुदवण्णा ।।"-अंगप० गा० १४ । हरि० १०।१३९-१४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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