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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [१ पेज्जदोसविहत्ती उजुकूलणदीतीरे जभियगामे बहिं सिलावट्टे । छट्टेणादावेंते अवरण्हे पादछायाए ॥२८॥ वइसाह जोण्हपक्खे दसमीए खवयसेढिमारूढो । हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो ॥२६॥" एवं छदुमत्थकालो परूविदो। ६१ संप॑हि केवलकालं भणिस्सामो। तं जहा, वइसाह-जोण्णपक्ख-एक्कारसिमादिं कादूण जाव पुणिमा त्ति पंच दिवसे ५, पुणो जेट्टमासप्पहुडि एगुणतीसं वासाणि तं चेव मासमादि कादण जाव आसउजो त्ति पंच मासे ५, पुणो कत्तियमास-किण्हपक्खचोद्दसदिवसे च केवलणाणेण सह एत्थ गमिय परिणिव्वुओ वड्ढमाणो १४, आमावसीए परिणिव्वाणपूजा सयलदेविंदेहि कया त्ति तं पि दिवसमेत्थेव पक्खित्ते पण्णारसदिवसा होति । तेणेदस्स कालस्स पमाणं वीसदिवस-पंचमासाहियएगुणतीसवासमेत्तं होदि २६-५-२० । त्रयसे शुद्ध और जंभिक ग्रामके बाहर ऋजुकूला नदीके किनारे सिलापट्टके ऊपर पष्ठोप वासके साथ आतापनयोग करते हुए महावीर जिनेन्द्रने अपराह्न कालमें पादप्रमाण छायाके रहते हुए वैशाखशुक्ला दसमीके दिन क्षपकश्रेणि पर आरोहण किया और चार घातिया कर्मोंका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया ॥२७-२२॥" इसप्रकार छद्मस्थकालका प्ररूपण किया । ६६१. अब केवलिकालको कहते हैं । वह इसप्रकार है-वैशाख शुक्लपक्षकी एकादशीसे लेकर पूर्णिमा तक पाँच दिन, पुनः ज्येष्ठ माहसे लेकर उनतीस वर्ष पुनः उसी ज्येष्ठ माहसे लेकर आसोज तक पाँच माह तथा कार्तिक माह के कृष्ण पक्षकी चतुर्दशी तक चौदह दिन, केवलज्ञानके साथ इस आर्यावर्तमें व्यतीत करके वर्द्धमान जिन मोक्षको प्राप्त हुए । अमावसके दिन सकल देव और इन्द्रोंने निर्वाणपूजा की, इसलिये अमावसका दिन भी इसी उपर्युक्त केवलिकालमें मिला देने पर कार्तिक माहके चौदह दिनोंके स्थानमें पन्द्रह दिन हो जाते हैं। इसलिये इस केवलिकालका प्रमाण उनतीस वर्ष, पाँच माह और बीस दिन होता . (२) “छटठेणादातो"-ध० आ० ५० ५३६ । (२)-पायछा-स०। (३) उद्धृता इमा:-ध० आ० ५० ५३६। (४) "संपहि केवलकालो बुच्चदे...."-ध० आ० ५० ५३६। (५) “कत्तियकिण्हे चोइसिपज्जसे सादिणामणक्खत्ते । पावाए णायरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो॥" ति० ५० ५० १०२ । “प्रपद्य पावानगरी गरीयसी मनोहरोद्यानवने तदीयके। चतुर्थकालेऽर्धचतुर्थमासकेविहीनताविश्चतुरब्दशेषके। स कार्तिके स्वातिषु कृण्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः । अधातिकर्माणि निरुद्धयोगको विधूय घातीन् घनव दविबन्धनः....":"॥"-हरि०६६।१५-१७ । वीरभ० श्लो०१६-१७। “तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए हत्थिवालस्स रन्नो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अन्तराबासं वासावासं उवागए।॥१२३॥ तस्स णं अन्तरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तिअबहले तस्स णं कत्तियबहुलस्स पन्नरसीपक्खणं जा सा चरमा रयणी तं रयणिं च समणे भगवं महावीरे कालगए....."-कल्पसू० १२३-२४, सू० १४७ । "तदा च कार्तिकदर्शनिशायाः पश्चिमे क्षणे । स्वातिऋक्षे वर्तमाने कृतषष्ठो जगदगुरुः॥"-त्रिषष्ठि.१०।१३।२२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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