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________________ गा०१] कम्मसरूववियारो मिच्छत्तासवदारं रुंभइ सम्मत्तदिढकवाडेण । हिंसादिदुवाराणि वि दढ-वय-फलहेहि रुंभंति ॥१०॥" $ ४३. ण च कम्मेहि णाणस्स दंसणस्स वा णिम्मूलविणासो कीरइ; जावदव्वभाविगुणाभावे जीवाभावप्पसंगादो। ण च एवं, दव्वस्स तिकोडि परिणाम (मा)जहउत्तीए परिणममाणस्स णिम्मूलविणासाणुववत्तीदो। ण च दव्वत्तमसिद्धं दव्वलक्खणुवलंभादो। ४४. अकट्टिमत्तादो कम्मसंताणे ण वोच्छिज्जदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं; अकट्टिमस्स वि बीजंकुरसंताणस्स वोच्छेदुवलंभादो । ण च कट्टिमसंताणिवदिरित्तो संताणो णाम अत्थि जस्स अकट्टिमत्तं वुच्चेज्ज । ण चासेसासवपडिवक्खे सयलसंवरे समुप्पण्णे वि कम्मागमसंताणे ण तुट्टदि त्ति वोत्तुं जुत्तं; जुत्तिवाहियत्तादो । सम्मत्त “सम्यक्त्वरूपी दृढ़कपाटसे मिथ्यात्वरूपी आस्रवका द्वार रोका जाता है तथा व्रतरूपी दृढ़ फलकों अर्थात् लकड़ीके तख्तोंसे हिंसादिरूप द्वार भी रोके जाते हैं ॥१०॥" ___६४३. यदि कहा जाय कि कर्म ज्ञान और दर्शनका निर्मूल विनाश कर देते हैं, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर यावत् जीवद्रव्यमें पाये जानेवाले गुणोंका अभाव हो जायगा। और उनका अभाव हो जाने पर जीवद्रव्यके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। यदि कहा जाय कि जीवके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है तो हो जाओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परिण मनकी इन तीन कोटियोंको न छोड़ता हुआ ही परिणमन करता है, इसलिये उसका निर्मूल विनाश बन ही नहीं सकता है। यदि कहा जाय कि जीवमें द्रव्यत्व ही किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जीवमें द्रव्यका लक्षण पाया जाता है। ४४. यदि कहा जाय कि अकृत्रिम होनेसे कर्मकी सन्तान व्युच्छिन्न नहीं होती है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अकृत्रिम होते हुए भी बीज और अंकुरकी सन्तानका विनाश पाया जाता है। दूसरे, कृत्रिम सन्तानीसे भिन्न सन्तान नामकी कोई वस्तु ही नहीं है जिसे अकृत्रिम कहा जाय। यदि कहा जाय कि अशेष आस्रवके विरोधी सकल संवरके उत्पन्न हो जाने पर भी कर्मोकी आस्रवपरंपरा विच्छिन्न नहीं होती है, अर्थात् बराबर चालू जोगेहि जं च आसवदि। दसणविरमणणिग्गहणिरोधणेहिं दु णासवदि ॥"-मूला० ५।४४ । “मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति ।"-द्वादशानु० गा० ४७ । मूला० ५।४०। मूलारा० गा० १८२५ । गो० क० गा० ७८६ । “बंधस्स मिच्छविरइकसायजोग त्ति चउ हेऊ"-कर्मग्रं० ४।५० । (१) मूला० गा० ३४२ । मूलारा० गा० १८३५ । (२) “पूर्वाकारपरित्यागाऽजहद्वत्तोत्तराकारान्वयप्रत्यय . ."-अष्टस० पृ०६५। (३) "विपक्षप्रकर्षगमनात् कर्मणां सन्तानरूपतयाऽनादित्वेऽपि प्रक्षयसिद्धेः । न ह्यनादिसन्ततिरपि शीतस्पर्शः क्वचिद् विपक्षस्योष्णस्पर्शस्य प्रकर्षपर्यन्तगमनान्निर्मूलं प्रलयमुपव्रजन्नोपलब्धः, नापि कार्यकारणरूपतया बीजाडाकुरसन्तानोऽनादिरपि प्रतिपक्षभूतदहनान्निर्दग्धबीजो निर्दग्धाङकुरो वा न प्रतीयते इति वक्तु शक्यं यतः कर्मभूभृतां सन्तानोऽनादिरपि क्वचित्प्रतिपक्षसात्मीभावान्न प्रक्षीयते ।"-आप्तप० का० ११० । न्यायकुमु० पृ० ८११, टि० ८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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