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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? हिंतो पुधभावेण अमुत्तत्तमुवगयस्स जीवस्स सरीरोसहेहि मुत्तेहि सह संबंधाणुववत्तीदो । ण च संबंधो पत्थि; सरीरे छिज्जमाणे जीवस्स दुक्खुवलंभादो । ण च अण्णम्हि छिज्जमाणे अण्णस्स दुक्खमुप्पज्जदि; अव्ववत्थापसंगादो। जीवे गच्छंते ण सरीरेण गंतव्वं; दोण्हमेयत्ताभावादो। ण चोसहपाणं जीवस्सारोग्गकारणं; सरीरेण पीदत्तादो। ण च अण्णेण पीदमोसहमण्णस्स आरोग्गं जणेदि, तहाणुवलंभादो । जीवे रुहे कंप-दाह-गलसोसक्खिराय-भिउडि-पुलउग्गम-धम्मादओ सरीरम्मि ण होज्ज; भिण्णत्तादो। जीविच्छाए सरीरस्स गमणागमणं हत्थ-पाद-सिरंगुलीणं चालो वि ण होज्ज, पुधभावादो । सव्वेसि जीवाणं केवलणाण-दंसण-विरिय-विरइ-सम्मत्तादओ होज्ज; कम्मसरीरेहि पुधभावादो जीवका संबन्ध नहीं बन सकता है, इस अन्यथानुपपत्तिसे प्रतीत होता है कि कर्म जीवसे संबद्ध ही है। शंका-जीव कर्मोंसे भिन्न है ऐसा क्यों नहीं माना जाता है ? । समाधान-नहीं, क्योंकि यदि कर्मोंसे जीवको भिन्न माना जावे तो कर्मोंसे भिन्न होनेके कारण अमूर्तत्वको प्राप्त हुए जीवका मूर्त शरीर और औषधिके साथ संबन्ध नहीं बन सकता है । इसलिये जीव कोंसे संबद्ध ही है ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिये । शरीर आदिके साथ जीवका संबन्ध नहीं है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर के छेदे जाने पर जीवको दुःखकी उपलब्धि होती है, इसलिये शरीरके साथ जीवका संबन्ध सिद्ध होता है। यदि कहा जाय कि अन्यके छेदे जानेपर उससे भिन्न दूसरेके दुःख उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर अव्यवस्थाका प्रसंग प्राप्त होता है । यथा, यदि जीव और शरीरमें एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध नहीं माना जायगा तो जीवके गमन करने पर शरीरको गमन नहीं करना चाहिये, उसीप्रकार औषधिका पीना जीवके आरोग्यका कारण नहीं होना चाहिये, क्योंकि औषधि शरीरके द्वारा पीई जाती है। यदि कहा जाय कि अन्यके द्वारा पीई गई औषधि उससे भिन्न दूसरेके आरोग्यको उत्पन्न कर देती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकारकी कहीं भी उपलब्धि नहीं होती है। उसीप्रकार जीवके रुष्ट होने पर शरीरमें कंप, दाह, गले का सूखना, आखों का लाल होना, भौंका चढ़ना, रोमाञ्च का होना, पसीना आना आदि कार्य नहीं होने चाहिये; क्योंकि शरीरसे जीव भिन्न है। तथा जीवकी इच्छासे शरीरका गमन और आगमन तथा हाथ, पैर, सिर और अंगुलियोंका सञ्चालन भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जींव से शरीरका सम्बन्ध नहीं है । तथा संपूर्ण जीवोंके केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्त विरति और सम्यक्त्व आदि गुण हो जाने चाहिये, क्योंकि जिसप्रकार सिद्धजीव कर्म और शरीर से पृथक् हैं उसीप्रकार संपूर्ण जीव भी कर्म और शरीरसे (१)-भिउदिपु-स०, अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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