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________________ गा..] पमाणिरूवणं त्ति गाहासुत्तेणेव अणुवदेसपुव्वं पि सुदणाणमत्थि ति सिद्धीदो। परमाणुपजंतासेसपोग्गलदव्वाणमसंखेचलोगमेत्तखेत्तकालभावाणं कम्मसंबंधवसेण पोग्गलभावमुवगयजाव" [जीवदव्वा-] णं च पञ्चक्खण........[परिच्छित्तिं कुणइ ओहिणाणं । चिंतिय-] अद्धचिंतिय-अचिंतियअत्थाणं पणदालीसजोयणलक्खभंतरे वट्टमाणाणं जं पञ्चक्खेण परिच्छित्तिं कुणइ, ओहिणाणादो थोवविसयं पि होदूण संजमाविणाभावित्तणेण गउरवियं तं मणपज्जवं णाम । घाइचउक्कक्खएण लद्धप्पसरूव-विसईकयतिकालगोयरासेसदव्वपज्जय-करणट्ठम (-णकम) ववहाणाईयं खइयसम्मत्ताणंतसुह-विरिय-विरइ-केवलदसणाविणाभावि केवलणाणं णाम । एवं पमाणाणं सामण्णपरूवणा कदा। २६. णय-दसण-चरित्त-सम्मत्तपमाणाणि एत्थ किण्ण परूविदाणि ? ण तत्थइस गाथासूत्रसे ही अनुपदेशपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है यह सिद्ध हो जाता है। महास्कन्धसे लेकर परमाणुपर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्योंको, असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र, काल और भावोंको तथा कर्मके संबन्धसे पुद्गलभावको प्राप्त हुए जीवोंको जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। पैंतालीस लाख योजनप्रमाण ढाई द्वीपके भीतर विद्यमान चिन्तित अर्धचिन्तित और अचिन्तित पदार्थों को जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है और जो अवधिज्ञानसे अल्पविषयवाला होते हुए भी संयमका अविनाभावी होनेसे गौरवको प्राप्त है वह मनःपर्ययज्ञान है । चारों घातिया कर्मोंके क्षयसे जो उत्पन्न हुआ है जिसने आत्मस्वरूपको प्राप्त कर लिया है अर्थात् जो ज्ञान आत्मस्वरूप है, जिसने त्रिकालके विषयभूत समस्त द्रव्य और पर्यायोंको विषय किया है। जो इन्द्रिय, क्रम तथा व्यवधानसे रहित है और जो क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, अनन्तविरति तथा केवलदर्शनका अविनाभावी है वह केवलज्ञान है । इसप्रकार प्रमाणोंकी सामान्य प्ररूपणा कर दी गई है। $२६. शंका-नय, दर्शन, चरित्र और सम्यक्त्वको यहां प्रमाणरूपसे क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि नयादिकमें स्थित संख्याका संख्याप्रमाणमें अन्तर्भाव हो (१)-सुत्तेण च अ--अ०, स०। (२) "अंतिमखंधताई परमाणुप्पहुदिमुत्तिदव्वाइं । जं पच्चक्खं जाणइ तमोहिणाणं ति णादव्वं ।"-ति०प०१० ९२। (३)-जाव (त्र०३) ण च पच्चक्खेण (: ता०. स०,-जाव पोग्गलेण च पच्चक्खेण णाणविसेसं णत्थि त्ति सिद्धीए चेव पोग्गलदव्वमपरूविय अद्ध-अ०, आ० । (४) "चिंताए अचिंताए अद्धं चिताए विविहभेयगयं । जं जाणइ णरलोए तं वि य मणपज्जवं णाणं ।" -ति०प०५०९२० (५)-“परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सम्वदव्वपज्जाया । सो व ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहि किरियाहिं ॥ णत्थि परोक्खं किंचि वि समंतसव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥"-प्रवचन० गा० २१-२२। “करणक्रमव्यवधानाद्यतिवर्तिबुद्धित्वात्"-अष्टस० पृ० ४४ । "तथाहि-सर्वद्रव्यपर्यायविषयमहत्प्रत्यक्षं क्रमातिक्रान्तत्वात्, क्रमातिक्रान्तं तत् मनोऽक्षानपेक्षत्वात्, मनोऽक्षानपेक्षं तत् सकलकलङ्कविकलत्वात्"-आप्तप० का० ९६ । “असवत्तसयलभावं लोयालोएसु तिमिरपरिचत्ते । केवलमखंडभेदं केवलणाणं भणंति जिणा ॥"-ति०५० ५० ९२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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