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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? मणुवलंभादो। अथवा, अण्णपरिच्छित्तिहेउदव्वं दव्वपमाणं गाम । ण च खेतेण किरियाविरहिएण कुडवादिणेव दव्वंतरपरिच्छित्ती सकिज्जदे काउं, किंतु खेत्तेप अण्णदव्वाणि ओगाहिज्जंति त्ति खेत्तस्स पमाणसण्णा, तेण खेत्तपमाणं दव्वपमाणे ण स्पर्शान्तर, अवगाहनासे अवगाहनान्तर और आकारसे आकारान्तररूप परिवर्तन नहीं देखा जाता है । अर्थात् रूप, रस, गन्ध और स्पर्श तो उनमें होते ही नहीं हैं । तथा उनकी अवगाहना और आकार भी अनादिकालसे एक ही चला आ रहा है, उनमें परिवर्तन नहीं होता। किन्तु जीव और पुद्गलमें यह बात नहीं है। पुद्गलमें रूप रसादिक बदलते रहते हैं । उसकी अवगाहना और आकार भी बदलता रहता है। संकोच और विस्तारके कारण जीवके भी अवगाहना और आकारमें परिवर्तन होता रहता है । अतः द्रव्यप्रमाणमें द्रव्य पदसे जीव और पुद्गलका ही ग्रहण किया है । अथवा, अन्य पदार्थोंके परिमाण कराने में कारणभूत द्रव्य द्रव्यप्रमाण है, द्रव्यप्रमाणके इस लक्षणके अनुसार कुडव आदि ही द्रव्यप्रमाण कहे जा सकते हैं, क्योंकि कुडव आदिसे जिसप्रकार अन्य पदार्थोंका परिमाण किया जा सकता है उसप्रकार क्रियारहित आकाश क्षेत्रके द्वारा अन्य पदार्थोंका परिमाण नहीं किया जा सकता है। तो भी क्षेत्रका आश्रय लेकर अन्य द्रव्य अवगाहित होते हैं, इसलिये क्षेत्रको प्रमाण संज्ञा है और इसीलिये क्षेत्रप्रमाण द्रव्यप्रमाणमें अन्तर्भूत नहीं होता है यह सिद्ध हो जाता है। विशेषार्थ-द्रव्यप्रमाणसे क्षेत्रप्रमाणको अलग गिनाया है। इस पर शंकाकारका कहना है कि जिसप्रकार दण्डादि प्रमाण द्रव्यस्वरूप होनेके कारण द्रव्यप्रमाणसे अलग नहीं माने गये हैं उसीप्रकार क्षेत्रको भी द्रव्यस्वरूप होनेके कारण द्रव्यप्रमाणसे अलग नहीं मानना चाहिये । इस शंकाका यह समाधान है कि द्रव्यप्रमाणमें सभी द्रव्योंका ग्रहण नहीं किया है। किन्तु जिन द्रव्योंमें गुणविकार और प्रदेशविकार देखा जाता है वे द्रव्य ही यहां द्रव्यप्रमाण पदसे ग्रहण किये गये हैं । ऐसे द्रव्य जीव और पुद्गल ये दो ही हो सकते हैं; अन्य नहीं । अन्य द्रव्योंमें यद्यपि अगुरुलघु गुणोंकी अपेक्षा हानि और वृद्धिकृत परिणाम पाया जाता है पर वह परिणाम उनमें गुणविकारका कारण नहीं है । तथा जीव और पुद्गलमें जिसप्रकार प्रदेशविकार देखा जाता है उसप्रकारका प्रदेशविकार भी अन्य द्रव्योंमें नहीं होता है। अतः धर्मादि द्रव्य जीव और पुद्गलके समान दूसरे पदार्थोके परिमाणके ज्ञान करानेमें कारण नहीं होते हैं, इसलिये द्रव्यप्रमाणमें केवल जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंका ही ग्रहण किया है। ये दोनों द्रव्य यहां अशुद्ध ही लेने चाहिये। फिर भी आकाशके आश्रयसे अन्य पदार्थ अवगाहित होकर रहते हैं अतः आकाशको द्रव्यप्रमाणसे भिन्न प्रमाण माना है। आकाश केवल द्रव्य है इसलिये उसका द्रव्यप्रमाणमें अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि द्रव्यप्रमाणकी हेतुभूत उपर्युक्त सामग्री आकाशमें नहीं पाई जाती है। (१) णामदो च आ०, अ० स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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