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________________ ३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती १ प्रमाणम् । नामाख्यातपदानि नामप्रमाणं प्रमाणशब्दो वा। कुदो ? एदेहितो अप्पणो अण्णेसिं च दव्व-पज्जयाणं परिच्छित्तिदसणादो । सो एसो ति अभेदेण कह-सिलापव्वएसु अप्पियवत्थुण्णासो ढवणापमाणं । कथं ठवणाए पमाणत्तं ? ण ठवणादो एवंविहो सो त्ति अण्णस्स परिच्छित्तिदंसणादो । मइ-सुद-ओहि-मणपज्जव-केवलणाणाणं सब्भावासब्भावसरूवेण विण्णासो वा । सयं सहस्समिदि असब्भावट्ठवणा वा ठवणपमाणं । सयं सहस्समिदि दव्वगुणाणं संखाणं धम्मो संखापमाणं । पल-तुला-कुडवादीणि दव्वपमाणं, दव्वंतरपरिच्छित्तिकारणत्तादो। दव्वपमाणेहि मविदजव-गोहूमतगर-कुछ-वालादिसु कुडव-तुलादिसण्णाओ उवयारणिबंधणाओ त्ति ण तेसिं पमाणत्तं किंतु और आख्यातपद अथवा प्रमाणशब्द नामप्रमाण हैं, क्योंकि इनसे अपनी तथा दूसरे द्रव्य और पर्यायोंकी परिच्छित्ति होती देखी जाती है। 'वह यह है' इस प्रकार अभेदकी विवक्षा करके काष्ठ, शिला और पर्वतमें अर्पित वस्तुका न्यास स्थापनाप्रमाण है। शंका-स्थापनाको प्रमाणता कैसे है ? समाधान-ऐसी शङ्का नहीं करना चाहिये, क्योंकि स्थापनाके द्वारा 'वह इस प्रकारका है' इसप्रकार अन्य वस्तुका ज्ञान देखा जाता है। अथवा, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानका तदाकार और अतदाकार रूपसे निक्षेप करना स्थापना प्रमाण है। अथवा, 'यह सौ है, यह एक हजार है' इसप्रकारकी अतदाकार स्थापना स्थापनाप्रमाण है। द्रव्य और गुणोंके 'सौ हैं, एक हजार हैं' इसप्रकारके संख्यानरूप धर्मको संख्याप्रमाण कहते हैं । अर्थात् द्रव्य और गुणोंमें जो संख्यारूप धर्म पाया जाता है उसे संख्याप्रमाण कहते हैं। पल, तुला और कुडव आदि द्रव्यप्रमाण हैं, क्योंकि ये सोना, चांदी, गेहूँ आदि दूसरे पदार्थों के परिमाणके ज्ञान करानेमें कारण पड़ते हैं। किन्तु द्रव्यप्रमाणरूप पल, तुला आदि द्वारा मापे गये जौ, गेहूँ, तगर, कुष्ठनामकी एक दवा और बाला नामका एक सुगन्धित पदार्थ आदिमें जो कुडव और तुला आदि संज्ञाएँ व्यवहृत होती हैं वे उपचारनिमित्तक हैं। इसलिये उन्हें प्रमाणता नहीं है, किन्तु वे प्रमेयरूप ही हैं। विशेषार्थ-एक बहुत छोटी तौलको या चार तोलाको पल कहते हैं। तौलनेके साधन या तराजूको तुला कहते हैं और अनाज मापनेके एक मापको कुडव कहते हैं। परन्तु लोकमें तौले और मापे जानेवाले सोना और गेहूँ आदि पदार्थों में भी तुला और कुडव (१) “सा दुविहा सब्भावासब्भावट्ठवणा चेदि"-ध० सं० पृ० २० । लघी० स्व० पृ० २६ । त० श्लो० पृ० १११ । अक० टि० पृ० १५३। "अक्खे वराडए वा कठे त्थे व चित्तकम्मे वा । सब्भावमसब्भावं ठवणापिडं वियाणाहि ॥"-पिंड० गा० ७ । बृह० भा० गा० १३ । “सद्भावस्थापनया नियमः असद्भावेन वा अतद्रूपेति स्थूणेन्द्रवत् ।"-नयच. वृ० ५० ३८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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