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________________ २८. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती २२. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा-पुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुब्बी, जत्थतत्थाणुपुवी चेदि । जं जेण कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुव्वाणुपुची णाम । तस्स विलोमेण गणणा पंच्छाणुपुव्वी। जत्थ वा तत्थ वा अप्पणो इच्छिदमादि कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुवी होदि । एवमाणुपुव्वी तिविहा चेव, अणुलोमपडिलोमतदुभएहि वदिरित्तगणणकमाणुवलंभादो । २३. तत्थ पंचसु णाणेसु पुव्वाणुपुवीए गणिज्जमाणे विदियादो, पच्छाणुपुव्वीए गणिज्जमाणे चउत्थादो, जत्थतत्थाणुपुवीए गणिज्जमाणे पढमादो विदियादो तदियादो चउत्थादो पंचमादो वा सुदणाणादो कसायपाहुडं णिग्गयं । अंग-अंगबाहिरेसु पुव्वाणुव्वीए पढमादो, पच्छाणुपुवीए विदियादो अंगपविहादो कसायपाहुडं विणि २२. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है-पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यत्रतत्रानुपूर्वी, ये आनुपूर्वीके तीन भेद हैं । जो पदार्थ जिस क्रमसे सूत्रकारके द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा, जो पदार्थ जिस क्रमसे उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रमसे गणना करना पूर्वानुपूवी है । उस पदार्थकी विलोम क्रमसे अर्थात् अन्तसे लेकर आदि तक गणना करना पश्चादानुपूर्वी है । और जहां कहींसे अपने इच्छित पदार्थको आदि करके गणना करना यत्रतत्रानुपूर्वी है। इसप्रकार आनुपूर्वी तीन प्रकारकी ही है, क्योंकि अनुलोमक्रम अर्थात् आदिसे लेकर अन्त तक, प्रतिलोमक्रम अर्थात् अन्तसे लेकर आदि तक और तदुभयक्रम अर्थात् दोनों, इनके अतिरिक्त गणनाका और कोई क्रम नहीं पाया जाता है। २३. पांचों ज्ञानोंमेंसे श्रुतज्ञानको पूर्वानुपूर्वीक्रमसे गिनने पर दूसरे, पश्चादानुपूर्वीक्रमसे गिनने पर चौथे, और यत्रतत्रानुपूर्वीक्रमसे गिनने पर पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे अथवा पांचवें भेदरूप श्रुतज्ञानसे कषायप्राभृत निकला है। अंग और अंगबाह्यकी विवक्षा करने पर पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा पहले और पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा दूसरे अंगप्रविष्टसे कषायध० ५० ५३८ । “से कि तं आणुपुत्री ? दसविहा पण्णत्ता, तं जहा-नामाणुपुवी ठवणाणुपुवी दव्वाणुपुवी खेत्ताणुपुव्वी कालाणुपुव्वी उक्कित्तणाणुपुव्वी गणणागुपुत्वी संगणणाणुपुवी समाआरीआणुपुव्वी भावाणुपुब्बी। (सू० ७१) से किं तं उवणिया दवाणुपुव्वी ? तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुब्बी, पच्छाणुपुवी अणाणुपुव्वी य। (सू० ९६) उक्कित्ताणाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता ( सू० ११५ ) गणणाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वाणुपुवी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी (सू० ११६)"-अनु० । वि० भा० गा० ९४१। (१) "जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुव्वाणुपुव्वी"-ध० सं० पृ०७३ । पढमातो आरब्भा अणुपरिवाडीए जं णिज्जति जाव चरिमं तं पुव्वाणुपुवी''-अनु०, चू० पृ० २९ । “प्रथमात्प्रभृति आनुपूर्वी अनुक्रमः परिपाटी पूर्वानुपर्वी।"-अनु० ह. पृ० ४१ ! (२) "जं उवरीदो हेट्ठा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुव्वी'-ध० सं० पृ० ७३ । 'चरिमा ओमत्थं गमन् अणुपरिवाडीए गणिज्जमाणं पच्छाणुपुन्वी ।"अनु० चू० पृ० २९ ।" पाश्चात्यात् चरमादारभ्य व्यत्ययेनैव आनुपूर्वी पश्चादानुपूर्वी ।"-अनु० ह० पृ० ४१ । (३) "अणुलोमविलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतत्थाणुपुव्वी।"-ध० सं० पृ० ७३ । “अणाणुपुब्धि ति जा गणणा अणु त्ति पच्छाणुपुव्वी ण भवति, पुवि त्ति पुवाणुपुब्वी य ण भवति सा अणाणुपुवी।"अनु० चू०पू० २९ । “न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी यथोक्तप्रकारद्वयातिरिक्तरूपेत्यर्थः।"-अनु० ह० पृ० ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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