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________________ गा० १ ] केवलणाणवियारो त्वोपलम्भात् । तदनागतातीतपर्यायेष्वपि समानमिति चेत् न तद्ग्रहणस्य वर्तमानार्थग्रहणपूर्वकत्वात् । आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम् । केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानम् । शंका-यह व्युत्पत्यर्थ अनागत और अतीत पर्यायोंमें भी समान है । अर्थात् जिस प्रकार ऊपर कही गई व्युत्पत्तिके अनुसार वर्तमान पर्यायोंमें अर्थपना पाया जाता है उसीप्रकार अनागत और अतीत पर्यायोंमें भी अर्थपना संभव है। समाधान-नहीं, क्योंकि अनागत और अतीत पर्यायोंका ग्रहण वर्तमान अर्थके ग्रहणपूर्वक होता है। अर्थात् अतीत और अनागत पर्यायें भूतशक्ति और भविष्यत्शक्तिरूपसे वर्तमान अर्थमें ही विद्यमान रहती हैं। अतः उनका ग्रहण वर्तमान अर्थके ग्रहणपूर्वक ही हो सकता है, इसलिये उन्हें अर्थ यह संज्ञा नहीं दी जा सकती है। ___ अथवा, केवलज्ञान आत्मा और अर्थसे अंतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायककी अपेक्षासे रहित है, इसलिये भी वह केवल अर्थात असहाय है। इसप्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान समझना चाहिये । विशेषार्थ-बौद्ध ज्ञानकी उत्पत्तिमें चार प्रत्यय मानते हैं-समनन्तरप्रत्यय, अधिपतिप्रत्यय, सहकारिप्रत्यय और आलम्बनप्रत्यय। घटज्ञानकी उत्पत्तिमें पूर्वज्ञान समनन्तरप्रत्यय होता है। इसी पूर्वज्ञानको मन कहते हैं। तथा मनके व्यापारको मनस्कार कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मनस्कार-पूर्वज्ञान नवीन ज्ञानकी उत्पत्तिमें समनन्तरप्रत्यय अर्थात् उपादान कारण होता है और इन्द्रियाँ अधिपतिप्रत्यय होती हैं। यद्यपि घटज्ञान चक्षु, पदार्थ और प्रकाश आदि अनेक हेतुओंसे उत्पन्न होता है पर उसे चाक्षुषप्रत्यक्ष ही कहते हैं, क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय उस ज्ञानका अधिपति-स्वामी है, अतः इन्द्रियोंको अधिपतिप्रत्यय कहते हैं। प्रकाश आदि सहकारी कारण हैं । पदार्थ आलम्बन कारण हैं, क्योंकि पदार्थका आलम्बन लेकर ही ज्ञान उत्पन्न होता है। इसप्रकार बौद्धधर्ममें चित्त और चैतसिककी उत्पत्तिमें चार प्रत्यय स्वीकार किये गये हैं। इसीप्रकार नैयायिक और वैशेषिक दर्शनोंमें भी ज्ञानकी उत्पत्तिमें आत्ममनःसंयोग, मनइन्द्रियसंयोग, और इन्द्रियअर्थसंयोगको कारण माना है। इनकी दृष्टि से भी ज्ञानकी उत्पत्तिमें आत्मा, मन, इन्द्रिय और पदार्थ कारण होते हैं। केवलज्ञानको केवल अर्थात् असहाय सिद्ध करते समय यहां इन चार कारणोंकी सहायताका निषेध किया है और यह बतलाया है कि केवलज्ञान इन्द्रिय, आलोक, मनस्कार और अर्थ इनमेंसे किसी भी प्रत्ययकी अपेक्षा नहीं करता । आत्मा ज्ञाता है तथा अर्थ ज्ञेय है, इसलिये अर्थ कथंचित् ज्ञेयरूपसे तथा आत्मा ज्ञातारूपसे केवलज्ञानमें कारण मान भी लिये जांय तो भी कोई बाधा नहीं है । इसी अभिप्रायसे आचार्यने उपसंहार करते समय आत्मा और अर्थसे भिन्न इन्द्रियादि कारणोंकी सहायताके निषेध पर ही जोर दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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