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________________ गा० १ ] केवलणाणवियारो २१ $ १५. केवलमसहीयं इन्द्रियालोक-मैनस्कारनिरपेक्षत्वात् । आत्मसहायमिति न • पदार्थों को नहीं जानता है । यह ज्ञान कालकी अपेक्षा जघन्यरूपसे दो या तीन भवको जानता है । इसका यह अभिप्राय है कि यदि वर्तमान भवको छोड़ दिया जाय तो दो भवोंको और वर्तमान भवके साथ तीन भवोंको जानता है । तथा उत्कृष्टरूपसे यह ज्ञान वर्तमान भवके साथ आठ भवोंको और वर्तमान भवके विना सात भवोंको जानता है । क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यरूपसे गव्यूतिपृथक्त्व और उत्कृष्टरूपसे योजनपृथक्त्व प्रमाण क्षेत्रमें स्थित विषयको जानता है । एक गव्यूति दो हजार धनुषका होता है । और पृथक्त्व तीनसे लेकर नौ तक कहलाता है; पर यहाँ पृथक्त्वसे आठ लेना चाहिये । अर्थात् जघन्य ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान आठ गव्यूतिके घनप्रमाण क्षेत्रमें स्थित जीवोंके मनोगत विषयोंको जानता है । तथा उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान आठ योजनके घनप्रमाण क्षेत्रमें स्थित जीवोंके मनोगत विषयोंको जानता है । विपुलमति मन:पर्ययज्ञान ऋजु और अनृजु मन, वचन तथा कायके भेद से छह प्रकारका है। इनमें से ऋजु मन, वचन और कायका अर्थ ऊपर कह आये हैं । तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप मन, वचन और कायके व्यापारको अनृजु मन, वचन और काय कहते हैं । यहाँ आधे चिन्तवन या अचिन्तवनका नाम अनध्यवसाय है । दोलायमान प्रत्ययका नाम संशय है और विपरीत चिन्तवनका नाम विपर्यय है । विपुलमति वर्तमान में चिन्तवन किये गये विषयको तो जानता ही है पर चिन्तवन करके भूले हुए विषयको भी जानता है । जिसका आगे चिन्तवन किया जायगा उसे भी जानता है । यह विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी मतिज्ञानसे दूसरेके मानसको अथवा मतिज्ञानके विषयको ग्रहण करके अनन्तर ही मन:पर्ययज्ञानसे जानता है । कालकी अपेक्षा जघन्यरूपसे सात आठ भव और उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात भवोंकी गतियों और आगतियोंको जानता है । क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यरूपसे योजनपृथक्त्व और उत्कृष्टरूपसे मानुषोत्तर पर्वतके भीतर स्थित जीवोंके मनोगत विषयोंको जानता है । मानुषोत्तर पर्वत यहाँ पैंतालीस लाख योजनका उपलक्षण है, इसलिये यह अभिप्राय हुआ कि इस ज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र पेंतालीस लाख योजन है जो मानुषोत्तर पर्वत के बाहर भी हो सकता है। धवला टीकाके इस कथन के अनुसार जो उत्कृष्ट मन:पर्ययज्ञानी मानुषोत्तर पर्वत और मेरु पर्वतके मध्य में मेरु पर्वतसे जितनी दूर स्थित होगा उस ओर उसी क्रमसे उसका क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वतके बाहर बढ़ जायगा और दूसरी ओर उस मन:पर्ययज्ञानीके क्षेत्रसे मानुषोत्तर पर्वत उतना ही दूर रह जायगा । $ १५. असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापारकी अपेक्षासे रहित है । (१) "असहायमिति वा" - सर्वार्थ०, राजवा० ११३० । “केवलमसहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षं "नन्दी० ह० पृ० २५ । ( २ ) “मनस्कारश्चेतस आभोगः, आभुजनमाभोगः, आलम्बनेन येन चित्तमभिमु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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