SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ गा० १ . श्रोहिणाणवियारो शब्दस्य प्रवृत्तेः । किमहं तत्थ ओहिसहो परूविदो? ण; एदम्हादो हेहिमसव्वणाणाणि सावहियाणि उवरिमणाणं णिरवहियमिदि जाणावणटं । ण मणपज्जवणाणेण वियहिचारो; तस्स वि अवहिणाणादो अप्पविसयत्तेण हेहिमत्तब्भुवगमादो। पओगस्स पुण हाणविवज्जासो संजमसहगयत्तेण कयविसेसपदुप्पायणफलो त्ति ण कोच्छि (चि)दोसो। १३. तमोहिणाणं तिविहं-देसोही परमोही संवोही चेदि । एदेसि तिण्हं णाणाणं लक्खणाणि जहा पयडिअणिओगद्दारे परूविदाणि तहा परूवेदव्वाणि । प्रत्यक्ष जाननेवाले ज्ञानविशेषमें ही किया गया है, अतएव अतिव्याप्ति दोष नहीं आता है । शंका-अवधिज्ञानमें अवधि शब्दका प्रयोग किसलिये किया है ? समाधान-इससे नीचेके सभी ज्ञान सावधि हैं और ऊपरका केवलज्ञान निरवधि है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये अवधिज्ञानमें अवधि शब्दका प्रयोग किया है। यदि कहा जाय कि इसप्रकारका कथन करने पर मनःपर्ययज्ञानसे व्यभिचार दोष आता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मनःपर्ययज्ञान भी अवधिज्ञानसे अल्पविषयवाला है, इसलिये विषयकी अपेक्षा उसे अवधिज्ञानसे नीचेका स्वीकार किया है। फिर भी संयमके साथ रहनेके कारण मनःपर्ययज्ञानमें जो विशेषता आती है उस विशेषताको दिखलानेके लिये मनःपर्ययको अवधिज्ञानसे नीचे न रखकर ऊपर रखा है, इस लिये कोई दोष नहीं है। ९१३. वह अवधिज्ञान तीन प्रकारका है-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । इन तीनों ज्ञानोंके लक्षण जिसप्रकार प्रकृति नामके अनुयोगद्वारमें कहे गये हैं उसीप्रकार उनका यहाँ कथन करना चाहिये । विशेषार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लेकर जो ज्ञान रूपी पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। इस अवधिज्ञानके भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय इसप्रकार दो भेद हैं। यद्यपि सभी अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके होने पर ही प्रकट होते हैं फिर भी जो क्षयोपशम भवके निमित्तसे होता है उससे होनेवाले अवधिज्ञानको भवप्रत्यय कहते हैं और जो क्षयोपशम सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके निमित्तसे होता है उससे होनेवाले अवधिज्ञानको गुणप्रत्यय कहते हैं। यद्यपि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन, देशव्रत और महाव्रतके निमित्तसे होता है तो भी वह सभी (१) “परमो ज्येष्ठः, परमश्चासौ अवधिश्च परमावधिः । कथमेदस्स ओहिणाणस्स जेट्टदा ? देसोहिं पेक्खिदूण महाविसयत्तादो, मणपज्जवणाणं व संजदेसु चेव समुप्पत्तीदो, सगुप्पण्णभवे. चेव केवलणागुप्पत्तिकारणत्तादो, अप्पडिवादित्तादो वा जेट्टदा।"-ध० आ० ५० ५२३। (२) “सवं विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स बोधः सर्वावधिः।"-ध० आ० ५० ५२४। "जं ओहिणाणमुप्पण्णं संतं सुक्कपक्खचंदमंडलं व समयं पडि अवठ्ठाणेण विणा वड्डमाणं गच्छदि जाव अप्पणो उक्कस्सं पाविदूण उवरिमसमए केवलणाणे समुप्पण्णे विणळं ति तं वड्डमाणं णाम ।"-ध० आ० ५०८८१ । (३) घ० आ० पृ० ८८०-८८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy