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________________ ( १३ ) केवल मूल में प्रयुक्त विभक्ति के अनुसार हिन्दीमें उसी विभक्तिके बिठानेकी नहीं। मूलानुगामित्वका अभिप्राय भी यही है कि मूलसे अधिक तो कहा न जाय पर जो कुछ कहा जाय वह विभक्तियोंका अनुवाद न होकर विषयका अनुवाद होना चाहिये । इसके लिये जहाँ आवश्यक समझा वहाँ विशेषार्थ भी दे दिये हैं। इनके लिखने में भी हमने प्राचीन ग्रन्थोंका और उनसे फलित होने वाले प्रमेयोंका ही अनुसरण किया है। टिप्पण-वर्तमानमें सम्पादित होनेवाले ग्रन्थोंमें प्रायः ग्रन्थान्तरोंसे टिप्पण देनेको पद्धति चल पड़ी है। यह पद्धति कुछ नई नहीं है । प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंमें भी हमें यह पद्धति अपनाई गई जान पड़ती है। इससे अनेक लाभ हैं। इससे अध्ययनको व्यापक और विशद बनाने में बड़ी मदद मिलती है। प्रकृत विषय अन्यत्र कहाँ किस रूपमें पाया जाता है, यहाँ से वहाँ वर्णन क्रममें क्या सारूप्य, विभिन्नता या विशदता है, यह सब हम टिप्पणोंसे भली भाँति जान सकते हैं। इससे इस विषयके इतिहासक्रम और विकाश पर भी प्रकाश पड़ता है। तथा इससे प्रकृत ग्रन्थके हृद्य खोलने में भी बड़ी मदद मिलती है। इन्हीं सब बातोंका विचार करके हम लोगोंने प्रस्तुत संस्करणमें भी टिप्पणोंको स्थान दिया है। प्रस्तुत संस्करणमें तीन प्रकारके टिप्पण हैं । एक पाठान्तरोंका संग्रह करनेवाले टिप्पण हैं। दूसरे जिनमें अवतरण निर्देश किया गया है ऐसे टिप्पण हैं और तीसरे तुलना और विषयकी स्पष्टताको प्रकट करनेवाले टिप्पण हैं । टिप्पणोंमें उद्धृत पाठ जिस ग्रन्थका है उसका निर्देश पहले कर दिया है। अनन्तर जिन ग्रन्थोंका निर्देश किया है उनमें उसी प्रकारका पाठ है ऐसा नहीं समझना चाहिये । किन्तु उनका नाम मुख्यतः विषयकी दृष्टि से दिया है। टाईप-इस संस्करणमें कसायपाहुड, उसके चूर्णिसूत्र और इन पर जयधवला टीका इस प्रकार तीन ग्रन्थ चलते हैं । तथा टीकामें बीच बीचमें उद्धृत वाक्य भी आ जाते हैं, अतः हमने इन सबके लिये विभिन्न टाईपोंका उपयोग किया है। कसायपाहुडकी गाथाएं काला वह्निकमें, चूर्णिसूत्र ग्रेट नं. १ में, जयधवला ग्रेट नं० २ में और उद्धृतवाक्य ग्रेट नं०४ में दिये हैं। मूडविद्रीकी प्रतिमें गाथासूत्र, चूर्णिसूत्र और उच्चारणा के पहले * इस प्रकार फूलका चिह्न है, फिर भी हमने मुद्रित प्रतिमें केवल चूर्णिसूत्र और उसके अनुवादके प्रारम्भमें ही * इस प्रकार फूलके चिह्नका उपयोग किया है । कसायपाहुडमें कुल गाथाएं २३३ और विषय सम्बन्धी १८० गाथाएं हैं। हमने गाथाके अन्तमें २३३ के अनुसार चालू नम्वर रखा है तथा जो गाथा १८० वाली हैं उनका क्रमांक नम्बर गाथाके प्रारम्भमें दे दिया है। हिन्दी अनुवादमें भी कसाय पाहुडकी गाथाओं और चूर्णिसूत्रोंका अनुवाद ग्रेट नं० २ में और जयधवला टीका तथा उद्धृत वाक्योंका अनुवाद ग्रेट नं० ४ में दे दिया है। तथा उद्धृत वाक्योंको और उसके अनुवादको दोनों ओरसे इनवरटेड कर दिया है। भाषा-जयधवला टीकाके मूल लेखक आ० वीरसेन हैं और इनकी भाषाके विषयमें धवला प्रथम खण्डमें पर्याप्त लिखा जा चुका है, अत: यहाँ इस विषयमें प्रकाश नहीं डाला गया है । तथा मूल कसायपाहुड और चूर्णिसूत्रोंकी भाषाके विषयमें अभी लिखना उचित नहीं समझा, क्योंकि इस खण्डमें इन दोनों ग्रन्थोंका बहुत ही कम अंश प्रकाशित हुआ है। कार्य विभागकी स्थूल रूपरेखा __ श्री जयधवलाके सम्पादनमें मूलका संशोधन, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट और भूमिका मुख्य हैं । हम लोगोंने इन कामोंका स्थूलरूपसे विभाग कर लिया था। फिर भी इन सबको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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