SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती सद्देण पुण सेसउवकमा सूचिदा, देसामासियभावेण वा। ८. संपहि गाहाए दोहि पयारेहि सूचिदसेसोवकमाणं परूवणटुं जइवसहाइरियो चुण्णिसुत्तं भणदिपूर्वी आदि शेष चार उपक्रम सूचित हो जाते हैं। विशेषार्थ-उपक्रम पांच प्रकारका है-आनुपूर्वी, नाम प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । इनमेंसे गुणधर भट्टारकने नाम उपक्रमका तो 'कसायाण पाहुडं णाम' इस पदके द्वारा स्वयं उल्लेख किया है। पर शेष चार उपक्रमोंका उल्लेख नहीं किया है जिनके उल्लेख करनेकी आवश्यकता थी। इस पर वीरसेन स्वामीका कहना है कि या तो 'पाहुडम्मि दु' यहां आये हुए 'दु' शब्दसे आनुपूर्वी आदि शेष चार उपक्रमोंका ग्रहण हो जाता है । अथवा, 'कषायाण पाहुडं णाम' यह उपलक्षणरूप है, इसलिये इस पदके द्वारा देशामर्षकभावसे आनुपूर्वी आदि शेष चार उपक्रमोंका ग्रहण हो जाता है। उपलक्षणरूपसे आया हुआ जो पद या सूत्र अधिकृत विषयके एकदेशके कथन द्वारा अधिकृत अन्य समस्त विषयोंकी सूचना करता है, उसे देशामर्षक पद या सूत्र कहते हैं। इसका खुलासा मूलाराधना गाथा १२२३ की टीकामें किया है। वहां लिखा है कि 'जिसप्रकार 'तालपलंबं ण कप्पदि' इस सूत्रमें जो ताल शब्द आया है, वह वहां वृक्षविशेषकी अपेक्षा ताड़वृक्षका वाची न होकर वनस्पतिके एकदेशरूप वृक्षविशेषका वाची है । अर्थात् यहां पर ताल शब्द ताड़ वृक्षविशेषकी अपेक्षा ताड़वृक्षको सूचित नहीं करता है किन्तु समस्त वनस्पतिके एकदेशरूपसे ताड़वृक्षको सूचित करता है । अतएव ताल शब्दके द्वारा देशामर्षकभावसे सभी वनस्पतियोंका ग्रहण हो जाता है। उसीप्रकार गाथा नं० ४२१ के 'आचेलक्कुद्देसिय' इस अंश में आया हुआ चेल शब्द समस्त परिग्रहका उपलक्षणरूप है, अतः 'आचेलक्क' पदके द्वारा परिग्रहमात्रके त्यागका ग्रहण हो जाता है।' मूलाराधनाके इस कथनानुसार प्रकृतमें कषायप्राभूत यह पद भी आनुपूर्वी आदि पांचों उपक्रमोंके एकदेशरूपसे गाथामें आया है इसलिये वह देशामर्षकभावसे आनुपूर्वी आदि शेष चार उपक्रमोंका भी सूचन करता है। १८. अब गाथामें दो प्रकारसे अर्थात् गाथामें आये हुए 'तु' शब्दसे या 'कसायाण पाहुडं णाम' इस पदके देशामर्षकरूप होनेसे, सूचित किये गये शेष उपक्रमोंके कथन करनेके लिये यतिवृषभ आचार्य चूर्णिसूत्र कहते हैं ~~~~~ ~ (१) “एदं देसामासिगसुत्तं; कुदो ? एगदेसपदुप्पायणेण एत्थतणसयलत्थस्स सूचियत्तादो।"-ध० स० प० ४८६। “एदं देसामासियसुत्तं देसपदुप्पायणमहेण सूचिदाणेयत्थादो।"-ध० स०प०५८९। “देसामासियसुत्तं आचेलक्कं ति तं खु ठिदिकप्पे । लुत्तोऽथवादिसद्दो जह तालपलंबसुत्तम्मि ॥"-मूलारा० श्लो० ११२३॥ "अहवा एगग्गहणे गहणं तज्जातियाण सव्वेसिं। तेणऽग्गपलंबणं तु सूइया सेसगपलंबा।"-बह० भा० गा० ८५५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy