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________________ प्रस्तावना १०५ साकार स्थापनाको विषय क्यों नहीं करेगा ? क्योंकि प्रतिमा स्थापित इन्द्रके श्राकारसे भी इन्द्र विषयक भाव उत्पन्न होता है। अथवा, ऋजुसूत्रनय नाम निक्षेपको स्वीकार करता है यह निर्विवाद है । नाम निक्षेप या तो इन्द्रादि संज्ञा रूप होता है या इन्द्रार्थसे शून्य वाच्यार्थ रूप। अतः जब दोनों ही प्रकारके नाम भावके कारण होनेसे ही ऋजुसूत्र नयके विषय हो सकते हैं तो इन्द्राकार स्थापना भी भावमें हेतु होनेके कारण ऋजुसूत्रनयका विषय होनी चाहिए। इन्द्र संज्ञाका इन्द्ररूप भावके साथ तो वाच्यवाचकसम्बन्ध ही संभव है, जो कि एक दूरवर्ती सम्बन्ध है, परन्तु अपने आकारके साथ तो इन्द्रार्थका एक प्रकारसे तादात्म्य सम्बन्ध हो सकता है जो कि वाच्यवाचकभावसे सन्निकट है । अतः नामको विषय करनेवाले ऋजुसूत्र में स्थापना निक्षेप बननेमें कोई बाधा नहीं है। विशेषावश्यकभाष्यमें ऋजुसूत्रनयमें द्रव्यनिक्षेप सिद्ध करने के लिए अनुयोगद्वार (सू० १४ ) का यह सूत्र प्रमाणरूपसे उपस्थित किया गया है-"उज्जसुअस्स एगो अणुवजुत्तो पागमतो एग दव्यावस्सयं पुहुत्तं नेच्छइ ति" अर्थात् ऋजुसूत्रनय वर्तमानग्राही होनेसे एक अनुपयुक्त देवदत्त आदिको आगमद्रव्यनिक्षेप मानता है। वह उसमें अतीतादि कालभेद नहीं करता और न उसमें परकी अपेक्षा पृथक्त्व ही मानता है । इसतरह जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके मतसे ऋजुसूत्रनयमें चारों ही निक्षेप संभव हैं। वे शब्दादि तीन नयोंमें मात्र भावनिक्षेप ही मानते हैं और इसका हेतु दिया गया है इन नयोंका विशुद्ध होना । विशेषावश्यकभाष्यमें एक मत यह भी है कि ऋजुसूत्रनय नाम और भाव इन दो निक्षेपों को ही विषय करता है। एक मत यह भी है कि संग्रह और व्यवहार स्थापना निक्षेपको विषय नहीं करते । इस मतके उत्थापकका कहना है कि स्थापना चूंकि सांकेतिक है अतः वह नाममें ही अन्तर्भूत है। इसका प्रतिवाद करते हुए उन्होंने लिखा है कि जब नैगमनय स्थापना निक्षेपको स्वीकार करता है और संग्रहिक नैगम संग्रहनयरूप और असंग्रहिक नैगम व्यवहारनयरूप है तो नैगमनयके विभक्तरूप संग्रह और व्यवहारमें स्थापना निक्षेप विषय हो ही जाता है। इसतरह विवक्षाभेदसे नयोंमें निक्षेपयोजना निम्न प्रकारसे प्रचलित रही है नय पुष्पदन्त भूतबलि यतिवृषभ सिद्धसेन, पूज्यपाद । जिनभद्र नंगम चारों निक्षेप ३ नाम, स्थापना, द्रव्य चारों निक्षेप संग्रह द्रव्याथिक व्यवहार ऋजुसूत्र ३ नाम, द्रव्य, भाव । शब्दादित्रया २ नाम, भाव द्रव्याथिक पर्यायाथिक द्रव १ भाव पर्यायाथिक १ भाव विशेषावश्यकभाष्यके मतान्तर (१) संग्रह और व्यवहारमें स्थापना नहीं होती। (२) ऋजुसूत्रमें नाम और भाव होता है द्रव्य और स्थापना नहीं। (१) जैनतर्कभाषा पृ०२८। १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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