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________________ प्रस्तावना क्षमाश्रमण द्वारा संकलित एवं पुस्तकारूढ़ किया हुआ है। उसमें अनेक स्थलोंमें न्यूनाधिकता संभव है। पहिले की वाचनाओंके पाठभेद भी आजके भागमोंमें पाए जाते हैं। इस तरह अंग साहित्य तो किसी तरह देवर्धिगणिके महान् प्रयासके फलस्वरूप अपने वर्तमानरूपमें उपलब्ध भी होता है पर पूर्वसाहित्यका कुछ भी पता नहीं है। विशेषावश्यकभाष्य आदिमें कुछ गाथाएँ उद्धृत मिलती हैं जिन्हें वहाँ पूर्वगत कहा गया है।। दिगम्बर परम्परानुसार गौतम गणधरने सर्वप्रथम अन्तर्मुहूर्त कालमें ही द्वादशांगकी रचना की थी और फिर सुधर्मास्वामीको उसे सोंपा था। जब कि श्वेताम्बर परम्परामें द्वादशांगप्रथन जैसा महत्त्वका कार्य गौतमने न करके सुधर्मास्वामीने किया है। दि० जैन कथाग्रन्थों में श्रेणिकके प्रश्न पर गौतमस्वामी उत्तर देत हैं जब कि श्वे० परम्परामें यह सब साहित्यिक कार्य सुधर्मास्वामी करते रहे हैं इन्हीने ही सर्वप्रथम द्वादशांगकी रचना की थी। एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि दि० परम्पराके उपलब्ध प्राचीन सिद्धान्तग्रन्थ कषायपाहुड तथा षट्खंडागम जिन मूल कषायपाहुड और महाकर्मप्रकृतिपाहुडसे निकले हैं, वे दृष्टिवादके ही एक एक भाग थे और प्रा० गुणधर तथा पुष्पदन्त भूतबलिको उनका ज्ञान था। इस तरह आ० गुणधर तक परम्परासे आए हुए पूर्वसाहित्यके संकलनका प्रयत्न श्वे० परम्परामें प्रायः नहीं हुआ जब कि दि० परम्परामें उन्हींको संक्षिप्त करके ग्रन्थरचना करनेकी परम्परा है । श्वे० परम्परामें जो कमसाहित्य है, यद्यपि उसका उद्गम अग्रायणीय पूर्वसे बताया जाता है पर उनके रचयिता कार्मग्रंथिक आचार्यों को उस पूर्वका सीधा ज्ञान था या नहीं इसका कोई स्पष्ट उल्लेख देखने में नहीं आया। दृष्टिवादके विषयमें श्वेताम्बर परम्परामें जो अनेक कल्पनाएं रूढ़ हैं, उनसे ज्ञात होता है कि वे दृष्टिवादसे पूर्ण परिचित न थे। यथा-प्रभावकचरित्र (श्लो०११४) में लिखा है कि चौदह ही पूर्व संस्कृतभाषानिबद्ध थे, वे कालवश व्युच्छिन्न हो गए । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ( विशेषा० गा० ५५१) तो भूतवाद अथात् दृष्टिवादमें समस्त वाङ्मयका समावेश मानते हैं। ग्यारह अंगोंकी रचनाको तो वे मन्दबुद्धिजन एवं स्त्री आदिके अनुग्रहके लिए बताते हैं । इस तरह भ० महावीरके द्वारा अर्थतः उपदिष्ट और गणधर द्वारा द्वादशांगरूपसे गूथा गया श्रुत कालक्रमसे विच्छिन्न होता गया। श्वेताम्बर परम्परामें बौद्धोंकी भांति वाचनाएँ की गई । दिगम्बरपरम्परामें ऐसा कोई प्रयत्न हुआ या नहीं इस विषयमें कोई प्रमाण नहीं मिलता। हाँ, जो प्राचीनश्रुत श्रुतानुश्रुतपरिपाटीसे चला पाता था उसके आधारसे बहुमूल्य विविध विषयक साहित्य रचा गया है। द्वादशांगके पदोंकी संख्याका दिगम्बर परम्परामें सर्वप्रथम कुन्दकुन्दकृत प्राकृतश्रुतभक्ति में उल्लेख मिलता है। उसमें सर्वप्रथम आचारांगके १८ हजार पद बताए हैं। श्वे० परम्परामें नन्दीसूत्र में आचांरागके १८ हजार तथा आगेके अंगोंके दूने दूने पदोंका निर्देश किया गया है। दिगम्बर परम्परामें यह गिनती मध्यमपदसे बताई गई है। एक मध्यमपद १६३४८३०७८८८ अक्षर प्रमाण बताया है। श्वेताम्बर परम्परामें यद्यपि टीकाकारोंने पदका लक्षण अर्थबोधक शब्द या विभक्त्यन्त शब्द किया है पर मलयगिरि प्राचार्य जिस पदसे अंगग्रन्थोंकी संख्या गिनी जाती है उस पदका प्रमाण बतानेमें अपनेको असमर्थ बताते हैं । वे कर्मग्रन्थटीका ( १७ ) में लिखते हैं कि "पदं तु 'अर्थपरिसमाप्तिः पदम्' इत्याक्तिसद्भावेपि येन केनचित् पदेन अष्टादशपदसहस्रादि (१) "भावसुदपज्जएहि परिणवमहणा य धारसंगाणं । चोद्दसपुवाण तहा एक्कमहुत्तेण विरचणा विहिवो ॥"-त्रि० प्र० गा० ७९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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