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फोसणपरूवणा ४१. पंचिंदि तिरिक्खअपज० पंचणा०-णवदंस०-दोवेद०-मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक०-तिरिक्ख०-एइंदि०-तिण्णिसरीर-हुंड०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०अगु०४-थावर-सुहुम - पजत्तापजत्त-पत्ते० - साधार०-थिराथिर -- सुभासुभ-दूभगअणादें-अजस-णिमि०-णीचा०-पंचंत० जह० खेत्तभंगो। अजह० लोगस्स असंखें। सव्वलो० । उज्जो०-बादर-जस० जह० खेत्तभंगो। अज. सत्तचौँ । सेसाणं सव्वपगदीणं जह० अजह० खेत्तभंगो। एवं सव्वअपजत्तयाणं सव्वविगलिंदियार्ण बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वादरवणप्फदिपत्तेय०पज्जत्तयाणं च ।
चार आयु आदिका बन्ध करनेवाले उक्त तिर्यश्च लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका ही स्पर्शन करते हैं, इसलिए यह स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। पञ्चेन्द्रियजाति आदिका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव मारणान्तिक समुद्धातके समय ऊपर कुछ कम छह और नीचे कुछ कम छह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन कर सकते हैं, इसलिए यह स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्भात करते समय उद्योत और यश कीर्तिका बन्ध सम्भव है, अतः इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। नीचे कुछ कम छह राजु
और ऊपर कुछ कम सात राजू क्षेत्रके भीतर मारणान्तिक समुद्धात करते समय बादर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है, अतः इसका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है।
४१. पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय. तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तीन शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकोर्तिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जो स्वामी बतलाया है, उसे देखते हुए इस अपेक्षासे स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है। तथा पाँच ज्ञानावरणादिका बन्ध स्वस्थानके समान मारणान्तिक समुद्रात आदिके समय भी सम्भव है, इसलिए इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण कहा है । उद्योत आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी सम्भव है, इसलिए इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। तथा पूर्वोक्त सब प्रकृतियोंके सिवा जो स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग और छह संहनन आदि प्रकृतियाँ शेष रहती है इनका
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