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________________ महाबंचे पदसबंधाहियारे है, वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिए यह ओधके समान कहा है । तिर्यगतिदण्डकके उत्कृष्ट प्रदेशका बन्ध करनेवाले जीवोंका ओघसे लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन बतला आये हैं । वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिए इसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। तथा देवोंके विहारवत्स्वस्थान और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्रात करते समय भी इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सन्भव है, इसलिए इनका इस पढ़की अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ वटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । मनुष्यगतिद्विकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध संज्ञी तिर्यञ्च और मनुष्य करते हैं । तथा इनके मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घातके समय भी यह सम्भव है । पर इस प्रकारके जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, इसलिए यह स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध में देवा के विहार वत्स्वस्थानकी मुख्यता है, इसलिए इनके इस पढ़की अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । देव और नारकी मारणान्तिक समुद्धात के समय यद्यपि इन दो प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं, पर इस प्रकार प्राप्त होनेवाला स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, अतः विहारवत्स्वस्थानसे प्राप्त होनेवाला स्पर्शन ही यहाँ मुख्यरूप से विवक्षित किया गया है । ऊपर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी देवगतिद्विकके दोनों पढ़ सम्भव हैं, इसलिए इनके दोनों पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । यद्यपि मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभङ्गज्ञान नाव ग्रैवेयकतक सम्भव हैं, इसलिए यह प्रश्न हो सकता है कि देवगतिद्विकका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच राजूके स्थान में कुछ कम छह राजू होना चाहिए । पर इसका समाधान यह है कि सहस्रार कल्पके ऊपर सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए उक्त स्पर्शनमें विशेष अन्तर नहीं पड़ता । पञ्चेन्द्रियजाति आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध संज्ञी तिर्यञ्च और मनुष्य करते हैं। तथा द्वीन्द्रियादिकमें यथायोग्य मारणान्तिक समुद्घातके समय भी इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, पर ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक न होने के कारण इस प्ररूपणाको क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। तथा इनका देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय और यथायोग्य नीचे व ऊपर छह-छह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्रात करते समय भी अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा ३६ नालीका कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । नारकियोंमें और ऊपर के सहस्रार कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्रात करते समय भी वैक्रियिकद्विकके दोनों पदका बन्ध सम्भव है, इसलिए इन दोनों पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । देवगतिद्विककी अपेक्षा जो शंकासमाधान किया गया है, वह यहाँ भी जान लेना चाहिए। सहस्रारकल्पतकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्रात करते समय समचतुरस्र संस्थान आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका इस पद की अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका जो त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ बारह बटे चौदह भागमा स्पर्शन कहा है सो इसका खुलासा पञ्चेन्द्रियजातिका स्पर्शन बतलाते समय कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। देवोंके विहारवस्वस्थानके समय और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात के समय भी उद्योत और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय और नीचे छह व ऊपर सात इस प्रकार कुछ कम तेरह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्रातके समय भी उक्त दो प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका इस पदकी अपेक्षा अनालीका कुछ कम आठ व For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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