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________________ फोसणपरूवणा बारह । दोआउ०-तिण्णिजादि-आहारदुर्ग उक्क० अणु० खेत्तभंगो । दोआउ०-आदाव. उक० अणु० अट्ठचौदस० । दोगदि-दोआणु० उक० अणु० छच्चोंस० । तिरिक्ख०एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-का-हुंड०-वण्ण४--तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-थावर-पत्तेअथिर-असुभ-दूभग-अणादें०-अजस०-णिमि० उक० लोगस्स असंखें. सव्वलो० । अणु० अट्ठ० सव्वलो० । मणुस०-मणुसाणु०-तित्थ० उक्क० खेत्तभंगो । अणु० अट्टचों । एवं उच्चा० । बेउ वि०-वेउत्रि०अंगो० [ उक्क० ] अणु० बारह० । समचदु०-दोविहा०सुभग-दोसर-आदें उ० छच्चों । अणु० अट्ठ-बारह० । उजो०-बादर० उक्क० अङ्कणवचोदस० । अणु० अट्ठ-तेरह० । णवरि बादर० उक्क० खेत्तभंगो। [सुहुम०-अपज०साधार० पंचिंदियतिरिक्खपञ्जत्तभंगो।] एवं चक्खु०-सण्णि ति । कायजोगि० ओघं । उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने जसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। दो आयु, तीन जाति और आहारकद्विकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । दो आयु और आतपका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीत्राने त्रसनालीके कुछ कम आठ वटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो गति और दो आनुपूर्वीका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने वसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति और निर्माणका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सनालोके कुछ कम आठ वटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार उञ्चगोत्रके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन जानना चाहिए । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक शरीर आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट और अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालोके कुछ कम बारह बंटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। समचतुरस्त्रसंग्थान, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और आदेयके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने वसनालोके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भाग. प्रमाण क्षेत्रका म्पर्शन किया है । उद्योत और वादरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवाने वसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नी बंटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाल जीवाने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि बादर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका मन पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार चक्षुदर्शनवाले और संझी जीवाम जानना चाहिए । तथा काययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । १ ता० प्रती 'मणुस. मणुषु ( ? ) तिथ०' आप्रती 'मणुस. मणपज० तित्य.' इति पाटः । २ ता० प्रती आ० उ० ( दे ) छची०' आ० प्रती 'आदे० छचो०' इति पाटः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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