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________________ वडिबंधे अंतरं २६३ २६६. तेऊए पंचणा०-तेजा.-क०-वण्ण०४-अगु०४-बादर-पञ्जत्त-पत्ते-णिमि०पंचंत. एकवाड्डि-हाणि० जह० एग०, उक० अंतो० । तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसाग० सादि० । एसिं अणंत वृड्डि-हाणी अत्थि तेसिं जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि। देवगदि०४ तिण्णिववि-चत्तारिहाणि-अवढि० जह० एग०, उक० अंतो० । असंखेज्जगुणवड्डी० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । ओरालि. अन्तरकालका निषेध किया है। पञ्चेन्द्रियजाति आदि एक तो सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं । दूसरे इनका निरन्तर बन्ध भी सम्भव है, इसलिए इनकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा नरकमें व वहाँ जानेके पूर्व और बादमें अन्तमुहूर्त कालतक इनका नियमसे बन्ध होता रहता है, इसलिए इनकी आदि और अन्तमें तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका प्राप्त होना सम्भव होनेसे इनके उक्त पदोंका उत्कष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। इनके भी अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं होता, इसका खुलासा पूर्वके समान जानकर कर लेना चाहिए । तिर्यश्च और मनुष्य वैक्रियिकद्विकका बन्ध करते हैं और इनके कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । अब एक ऐसा जीव लो जिसने नरकमें जानेके पूर्व इनकी असंख्यातगुणवृद्धि की । बादमें वह छठे नरकमें उत्पन्न हुआ। सातवेंमें तो इसलिए नहीं उत्पन्न कराया है कि वहाँसे निकलनेके बाद भी वह अन्तर्मुहूर्त कालतक औदारिकद्विकका ही बन्ध करता है और उसके बाद लेश्या बदल जाती है। परन्तु छठे नरकके लिए ऐसा नियम इसलिए नहीं है, क्योंकि वहाँसे सम्यग्दृष्टि जीव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और ऐसे जीवोंके यहाँ उत्पन्न होनेपर प्रथम समयसे ही इस लेश्याके रहते हुए वैक्रियिकद्विकका बन्ध होने लगता है। यतः प्रारम्भमें अवक्तव्यपद होकर असंख्यातगुणवृद्धि और अन्तमें परिमाणयोगस्थान होनेपर असंख्यातगुणहानि होती है। इसके बाद लेश्या बदल जाती है, इसलिए यहाँ इन दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर कहा है। इनके भुजगार अनुयोगद्वारमें अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर साधिक सत्रह सागर और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर प्राप्त होता है। वह वहाँ भी बन जाता है, इसलिए यहाँ इसके अवक्तव्यपदका भङ्ग भुजगारके समान कहा है। इसी प्रकार नील और कापोतलेश्यामें अपने-अपने कालके अनुसार यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें कृष्णलेश्याके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान बन जानेसे उसमें इसके सम्बन्धमें नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। इन तीन लेश्याओंमें जिन प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी सम्भव हैं उन प्रकृतियोंके इन पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अलगसे कहा है। तथा इन प्रकृतियोंके शेष पदोंका भङ्ग भुजगार अनुयोगद्वारके समान है,यह स्पष्ट ही है। २६६. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलधुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायको एक वृद्धि और एक हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। जिनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है, उनके उन पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। देवगतिचतुष्ककी तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। औदारिकशरीरका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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