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________________ वडिबंधे अंतरं २५७ २६४. णqसगवेदेसु सव्वपगदीणं भुजगारभंगो । कोधादि०४- मदि-सुद-विभंग० भुजगारभंगो। ___२६५. आभिणि-सुद-ओधिणा० पंचणाणा० - णिद्दा-पयला-पुरिस०-भय-दुगुपंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वण्ण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदेंणिमि०-उच्चा०-पंचंत. असंखेंजगुणवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो० । तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० छावट्टिसाग० सादि० । सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। इनके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है। आठ कषायोंका भङ्ग ओघके समान यहाँ बन जाता है,पर अपनी कायस्थिति कालतक ही पुरुषवेद रहता है, इसलिए जिन पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल पुरुषवेदकी कायस्थितिसे अधिक कहा है वह पुरुषवेदकी कायस्थितिप्रमाण है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए उसकी अलगसे सूचना की है। पुरुषवेदी जीवके स्त्रीवेदका बन्ध कुछ कम दो छयासठ सागर कालतक न हो,यह सम्भव है,. क्योंकि इसके बाद यदि जीव मिथ्यात्वमें आता है तो उसका बन्ध नियमसे होने लगता है, इसलिए यहाँ अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदका शेष भङ्ग स्त्यानगृद्धित्रिकके समान है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ तक कुछ प्रकृतियोंके सम्भव पदोंका अलग-अलग अन्तरकाल कहा है। इनके सिवा जो प्रकृतियाँ रह जाती हैं, उनका अन्तरकाल भुजगार अनुयोगद्वारके समान यहाँ भी घटित हो जाता है। मात्र यहाँ सब प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका भङ्ग भुजगार और अल्पतरपदके समान प्राप्त होता है, क्योंकि किसी भी प्रकृतिका बन्ध होनेपर जैसे उसके भुजगार और अल्पतरका नियम है, उसी प्रकार असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका भी नियम है। तथा जिस प्रकार भुजगारके अवस्थितपदका नियम है, उसी प्रकार यहाँ तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका नियम है। तथा जिस प्रकार भुजगारके अवक्तव्यपदका नियम है, उसी प्रकार यहाँ भी अवक्तव्यपदका नियम है, इसलिए यहाँ अनुयोगद्वारके समान जाननेकी सूचना करके इन विशेषताओंका अलगसे उल्लेख किया है। २६४. नपुंसकवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारके समान है। क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभङ्गज्ञानी जीवोंमें भुजगारके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-पूर्व पुरुषवेदी जीवोंमें असंख्यातगुणवृद्धि आदि किन पदोंका भुजगार अनुयोगद्वारके किन पदोंके साथ साम्य है, इस बातको जानकर यहाँ सब प्रकृतियोंका इन मार्गणाओंमें कहे गये भुजगार अनुयोगद्वारके समान अन्तरकाल घटित हो जाता है, इसलिए उसे भुजगारके समान जाननेकी सूचना की है। २६५. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, निद्रा, प्रचला, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है १. ता०प्रतौ 'णव॒सके (ग) बेदेसु' इति पाठः । ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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