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________________ २५४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे और उसका अन्तरकाल सम्भव है, इसलिए उसे अलगसे कहा है। आठ कषायोंका यहाँ कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक बन्ध न हो,यह सम्भव है, इसलिए इनकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। इनके शेष पदोंका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है,यह स्पष्ट ही है। पर यहाँ इनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि ये दो पद तथा उनका अन्तरकाल सम्भव होनेसे इसका अलगसे उल्लेख किया है । इनके उक्त दोनों पदोंके अन्तरकालका खुलासा निद्रादिकके इन्हीं पदोंके अन्तरकालके समान कर लेना चाहिए। स्वामित्वको विशेषता अलगसे जान लेनी चाहिए । सम्यग्दृष्टिके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ इन असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य कहा है । इनके शेष पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। सम्यग्दृष्टि जीवके तिर्यञ्चगति आदिका भी बन्ध नहीं होता, इसलिए इनका भङ्ग स्त्रीवेदके समान बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है। पुरुषवेदका अन्य सब भङ्ग निद्राके समान बन जाता है,पर इसके अवक्तव्यपदका यहाँ अन्तरकाल सम्भव होनेसे उसका अलगसे उल्लेख किया है। पुरुषवेदके इस पदके अन्तरकालका खुलासा स्पष्ट ही है। क्योंकि सम्यग्दृष्टिके एकमात्र पुरुषवेदका ही बन्ध होता है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य कहा है। हास्य आदि चार प्रकृतियोंका अन्य सब भङ्ग तो पुरुषवेदके ही समान है,फरक केवल अवक्तव्य पदके अन्तरकालमें हैं। बात यह है कि एक तो ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और दूसरे सम्यग्दृष्टिके भी इनका बन्ध होता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका भङ्ग सातावेदनीयके समान बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है। नरकायुकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदका प्रकृतिबन्धके समान अन्तर करना चाहिए,यह सामान्य कथन है । विशेषरूपसे इसकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके उत्कृष्ट अन्तरके समान है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके सब पद कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें हों यह सम्भव है, इसलिए इनके सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। अट्ठावन पल्य और पूर्वकोटिपृथक्त्वके आदिमें और अन्तमें देवायुका बन्ध हो यह सम्भव है, क्योंकि जो जीव पचपन पल्यकी देवायु बाँधकर देवियोंमें उत्पन्न होता है। पुनः वहाँसे च्युत होकर और पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यके अन्तमें पुनः देवायुका बन्ध करता है, उसके दो बार देवायुका बन्ध होने में उक्त कालप्रमाण अन्तर प्राप्त होता है, इसलिए इसकी असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकालप्रमाण कहा है। तथा शेष पद कायस्थितिके आदिमें और मध्यमें देवायुका बन्ध करते समय हों और मध्यमें न हों यह सम्भव है, इसलिए इसके शेष पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है । स्त्रीवेदी जीवोंके दो गति आदि प्रकृतियोंका अधिकसे अधिक साधिक पचपन पल्यतक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनकी असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य कहा है । तथा इनके शेष पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । स्त्रीवेदी जीवोंके मनुष्यगति आदिका अधिकसे अधिक कुछ कम तीन पल्यतक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। इनका देवियोंमें सम्यक्त्वदशामें कुछ कम पचपन पल्य तक निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इस कालके आगे पीछे अवक्तव्यपद करानेसे अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य कहा है। तथा इनके शेष पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। औदारिकशरीरका भङ्ग इसी प्रकार है । मात्र देवीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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