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________________ २४८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ____२८६. ओरालियका० पंचणाणावरणादीणं असंखेंजगुणवड्डि-हाणि० जह० एग०, उक० अंतो०। तिण्णिवाड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० बावीसं वाससहस्साणि देसू० । अवत्त० णत्थि अंतरं। एवं थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ कालप्रमाण कहा है । काययोगमें एक बार इनका अवक्तव्यपद प्राप्त होनेके बाद पुनः उसके प्राप्त करनेमें कमसे कम भी जितना काल लगता है उस कालके भीतर यह योग बदल जाता है, इसलिए इसमें उक्त प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके अन्तरकालका निषेध किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक आदिके सब पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान प्राप्त होनेमें कोई वाधा नहीं आती, इसलिए इसे ज्ञानावरणके समान जाननेकी सूचना की है। तथा छह दर्शनावरण आदिका भङ्ग भी ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है । मात्र इन प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी होती है । पर इनके उक्त पदोंका यहाँ अन्तरकाल सम्भव नहीं है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंके अन्तरकालमें जितना समय लगता है उस कालके भीतर काययोग बदल जाता है। दो वेदनीय आदि प्रकृतियोंका अन्य भङ्ग तो ज्ञानावरणके ही समान है। मात्र यहाँ इनके अवक्तव्यपदका अन्तर काल बन जाता है, इसलिए उसका अलगसे निर्देश किया है। यतः ये सब परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। पुरुषवेद आदिका सब भङ्ग सातावेदनीयके समान है, इसलिए उसे सातावेदनीयके समान जाननेकी सूचना की है। परन्तु इन पाँच प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी होती है। पर इनका इस योगमें अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। कारणका निर्देश पहले कर आये हैं । नरकायु, देवायु और वैक्रियिकषट्क आदिका बन्ध पञ्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं और इनमें काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यके सिवा शेष पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ यद्यपि इनका अवक्तव्यपद होता है, पर एक बार इनका बन्ध प्रारम्भ होकर बन्धव्युच्छित्तिके बाद पुनः इनका बन्ध प्रारम्भ होनेमें कमसे-कम जितना काल लगता है उसमें यह योग बदल जाता है, अतः यहाँ इनके अवक्तव्य पदके अन्तरकालका निषेध किया है। काययोग चालू रहते हुए तिर्यश्चायुका दो बार बन्ध होनेमें साधिक बाईस हजार वर्षका उत्कृष्ट अन्तर पड़ता है, इसलिए इसके विवक्षित पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। तथा इसके शेष पदोंका उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है, क्योंकि लगातार यदि कोई जीव तिर्यश्च होता रहे तो वह तिर्यश्चायुका बन्ध करते समय अधिकसे- अधिक इतने कालतक उक्त पद न करे, यह सम्भव है। मनुष्यायुका तिर्यश्च अनन्त कालतक बन्ध न करे,यह सम्भव है, इसलिए इसके सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीव तियश्चगतिद्विक और नीचगोत्रका उत्कृष्टसे असंख्यात लोकप्रमाण काल तक निरन्तर बन्ध करते रहते हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। इनके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है। तथा अग्निकायिक और वायुकायिक जीव मनुष्यगतिद्विकका बन्ध नहीं करते, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २८६. औदारिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादिकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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