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________________ २४६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे २८७. पंचपण०-पंचवचि० पंचणा० चत्तारिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । एवं थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०णस०-चदुआउ० सव्वाओ णामपगदीओ गोद-पंचतरं । णवरि दोवेदणीयादिपरियत्तमाणिगाणं भुजगारभंगो कादव्वो। छदंस०-बारसक०-सत्तणोक० एवं चेव । णवरि अणंतभागवड्डि-हाणि पत्थि अंतरं । २८८. कायजोगीसु पंचणा० असंखेंजगुणवड्डि-हाणि. जह० एग०, उक० अंतो० । तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखेंजदिभा० । अवत्त. णत्थि अंतरं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-ओरालि०-तेजा-क०-वण्ण०४-अगु०उप०-णिमि-पंचंत० णाणा भंगो। छदंस०-बारसक०-भय-दु० जाणाभंगो। णवरि कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंकी कायस्थिति दो हजार सागर प्रमाण है। यहाँ इस कायस्थितिका विचार कर यथायोग्य अन्तरकाल ले आना चाहिए । शेष कथन सुगम है। २८७. पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरणकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्यपदका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार त्यानांद्धांत्रक, मिथ्यात्व अनन्तान चतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार आयु, नामकर्मकी सब प्रकृतियाँ, दो गोत्र और पाँच अन्तरायके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो वेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारके समान करना चाहिए । छह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायका भङ्ग इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ—इन योगोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरणादि सब प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। यहाँ मूलमें जो यह कहा है कि वेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृ. तियोंका भङ्ग भुजगारके समान करना चाहिए सो उसका अभिप्राय इतना ही है कि भुजगारबन्धमें इनके अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर जो अन्तर्मुहूर्त कहा है वह यहाँ इनके अवक्तव्यबन्धका जानना चाहिए । तथा यहाँ छह दर्शनावरण आदिकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके निषेधका यह कारण है कि इन मार्गणाओंका काल अल्प होनेसे इनमें उक्त प्रकृतियांका अन्तर देकर दो बार अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । शेष कथन सुगम है। . २८८. काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका १. आ प्रतौ 'णवरि वेदणीयादि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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