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________________ १६६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १८३. ओरा०का० ओघं। णवरि थीण०३-अट्ठक०-ओरालि० अवत्त० खेत्तभंगो। मिच्छ० अवत्त० सत्तचों । अपञ्चक्खाण०४ अवत्त० मणुसाउ०' तित्थगरादीणं रज्जू णत्थि। १८३. औदारिककाययोगी जीवों में ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, आठ कषाय और औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने प्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथअप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का तथा मनुष्यायु और तीर्थङ्कर आदिके सब पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन राजुओं में नहीं प्राप्त होता। विशेषार्थ-यहाँ समान्यसे औदारिककाययोगी जीवों में सब प्रकृतियों का भङ्ग ओघके समान जाननेकी सूचना की है और यह सम्भव भी है, क्योंकि यह योग एकेन्द्रिय जीवों के भी यथासम्भव पाया जाता है। मात्र कुछ ऐसी प्रक्रतियाँ हैं जिनके विवक्षित पदवाले जीवों का स्पर्शन ओघके अनुसार घटित नहीं होता, इसलिए उसे अलगसे सूचित किया है । यथा-ओघमें स्त्यानगृद्धित्रिक और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्यपदवालों का स्पर्शन सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । जो देवों के विहारादिके समय होता है । तथा औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदवालों का स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है जो नारकियों और देवों के उपपादपदके समय होता है । किन्तु इस स्पर्शन कालमें औदारिककाययोग सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियों के अवक्तव्य पदवाले जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके अवक्तव्यपदवाले जीवोंका स्पर्शन ओघसे भी क्षेत्रके समान है, इसलिए उससे इस विषयमें यहाँ कोई विशेषता नहीं है। हाँ यह स्पर्शन यहाँ उपपादपदके समय नहीं प्राप्त करना चाहिए, इतनी विशेषता अवश्य है। यही कारण है कि इसका भी यहाँ विशेषरूपसे उल्लेख किया है । ओघसे मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदवाले जीवों का स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। किन्तु उसमेंसे यहाँ त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन ही प्राप्त होता है, क्योंकि औदारिककाययोगी जीव ऊपर कुछ कम सात राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते समय ही मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद कर सकते हैं, पूर्वोक्त अन्य पर्शनके समय नहीं, इसलिए मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदवाले जीवों के स्पर्शनमें ओघसे फरक होनेके कारण यह भी अलगसे कहा है । ओघसे अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके अवक्तव्य पदवाले जीवों का स्पर्शन त्रसनालीक कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण घटित करके बतलाया है,पर यह स्पर्शन भी यहाँ सम्भव नहीं है। क्योंकि जो संयतासंयत आदि मनुष्य और संयतासंयत तिर्यश्च असंयत होकर उसी पर्याय में इनका अवक्तव्यपद करते हैं उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं प्राप्त होता, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्यपदका स्पर्शन राजुओं में नहीं प्राप्त होता यह सूचना की है । ओघसे मनुष्यायुके सब पदवाले जीवों का स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण कहा है। सो इसमेंसे सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन तो यहाँ भी बन जाता है, क्योंकि एकेन्द्रियों के औदारिककाययोग भी होता है । पर दूसरा स्पर्शन यहाँ सम्भव नहीं है । हाँ, उसके स्थानमें यहाँ लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन अवश्य सम्भव है, इसलिए उक्त स्पर्शनका निषेध करनेके लिए मनुष्यायुके सब पदवालों का १ ता. प्रतौ 'अवत्त (?) मणुसाउ०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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