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________________ १६४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अवत्त० खेत। बादर-उजो०-जस० सव्वपदा अट्ठ-तेरह । णवरि बादर० अवत्त० खेत्तभंगो। सुहुम-अपज्जत्त-साधार० तिण्णिपदा लोग० असंखें. सव्वलो० । अवत्त० खैत्तभंगो । [ अजस०तिण्णिपदा अट्टचों सव्वलो० । अवत्त० अट्ठ-तेरह० । ] तित्थ० तिण्णिपदा अट्टचों । अवत्त० खेत्तभंगो। एवं पंचिंदियभंगो पंचमण-पंचवचि०चक्खु०-सण्णि त्ति । कायजोगि-अचक्खु-भवसि०-आहार० ओघ । क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। बादर, उद्योत और यश कीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि बादरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने बसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने बसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इस प्रकार पञ्चेन्द्रियों के समान पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवों में जानना चाहिए। काययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें ओधके समान भङ्ग है। विशेषार्थ—पञ्चेन्द्रियद्विक जीवोंका स्पर्शन स्वस्थानविहार आदिकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरणादिके भुजगार आदि तीन पदोंकी अपेक्षा उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है,क्योंकि इन जीवोंमें उक्त प्रकृतियोंके ये तीन पद सब अवस्थाओंमें सम्भव हैं । मात्र इनमें इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका स्वामित्व ओघके समान होनेसे इस पदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । स्त्यानगृद्धि आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन पाँच ज्ञानावरणके समान ही घटित कर लेना चाहिए । तथा इनका अवक्तव्य पद देवोंमें स्वस्थान विहार आदिके समय भी सम्भव है, इसलिए इनके इस पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । सातावेदनीय आदिके चारों पद विहारादिके समय और मारणान्तिक समुद्धातके समय सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। मिथ्यात्वके तीन पदोंकी अपेक्षा उक्त स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । तथा इसका अवक्तव्यपद देवोंमें विहारादिके समय और नीचे कुछ कम पाँच और ऊपर कुछ कम सात राजूके स्पर्शनके समय भी सम्भव है, इसलिए इसके इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके तीन पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन पाँच ज्ञानावरणक समान ही घटित कर लेना चाहिए। तथा आगे भी जिन प्रकृतियार पदोंका यह स्पर्शन कहा है वह भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। तथा जो संयतासंयत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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