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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १३५ १६०. ओरालिका०जोगि० पढमदंडओ मणुजोगिभंगो । णवरि अवढि० जह० एग०, उक्क० बावीसं वाससह०, देसू० । दोआउ० तिण्णि पदा जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० सत्तवाससह. सादि० । दोआउ०-वेउव्वियछक्कआहारदुग-तित्थ० मणजोगिभंगो। सेसाणं णाणा भंगो। [णवरि अवत्त० जह० उक्क०] अंतो। विशेषार्थ-यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय । एकेन्द्रियोंमें इन प्रकृतियोंके तीन पदोंका जो अन्तरकाल कहा है वह यहाँ भी बन जाता है, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें सामान्यरूपसे काययोग ही पाया जाता है, इसलिए कोययोगियोंमें इन प्रकृतियोंके तीन पदोंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान कहा है। मात्र एकेन्द्रियों में इन प्रकृतियोंका अवक्तव्य पद नहीं होता और काययोगियोंमें होता है, फिर यहाँ इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्य पदके अन्तरकालका निषेध किया है। काययोगियोंमें तिर्यश्चगतित्रिकका असंख्यात लोकप्रमाण काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इन प्रकृतियोंके शेष पदोंका अन्तरकाल सुगम है। मनुष्यगतित्रिकके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर ओघमें कहे अनुसार यहाँ बन जाता है, इसलिए वह ओघके समान कहा है। खुलासा ओघप्ररूपणाको देखकर जान लेना चाहिए। पञ्चेन्द्रियोंमें काययोगका काल अन्तमुहतसे अधिक नहीं है। इसलिए काययोगियोंमें दो आयु, वैक्रियिकषटक आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंका अन्तरकाल मनोयोगी जीवोंके समान बन जानेसे वह उनके समान कहा है। मनुष्यायुका ओघमें और तिर्यश्चायुका एकेन्द्रियोंके चारों पदोंकी अपेक्षा जो अन्तरकाल कहा है वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिए मनुष्यायुके चारों पदोंके अन्तरकालको ओघके समान और तिर्यञ्चायुके चारों पदोंके अन्तरकालको एकेन्द्रियोंके समान जाननेकी सूचना की है। अब रहीं शेष ये प्रकृतियाँ-सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, पचि जाति, छह संस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात उच्छास, आतप उद्योत, दो विहायोगति और त्रसस्थावर ओदि दस युगल । ये सब प्रकृतियाँ परावर्तमान हैं, इसलिए इनके सब पदोंका मूलमें कहे अनुसार अन्तरकाल बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। १६०. औदारिककाययोगी जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । दो आयुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष है। दो आयु, वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष होनेसे औदारिककाययोगवाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ १ ता.आप्रत्योः 'णाणा भंगो..."अंतो.' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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