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अप्पाबहुगपरूवणा अचक्खुदं० ज० प० वि०। चक्खुदं० ज० प० विसे० । अण्णदरे आउ० ज० प० संखेंजगु० । अण्णदरगोद० ज० प० विसे० । अण्णदरवेदणी० ज० ५० विसे ।
१३१. वचि०-असचमोसवचिजोगीसु ओघो याव चक्खुदं० ज० प० विसे । तिरिक्ख-मणुसाऊणं ज० प० संखेंजगु० । अण्णदरे गोदे० ज० प० विसे० । अण्णदरे वेदणी० ज०प० विसे० । वेउवि० ज० प० [असंखेंजगु० । देवगादि० ज० प०] असंखेजगु० । णिरयगदि० ज० प० संखेज्जगुणं । णिरय-देवाऊणं ज० प० संखेज्जगुणं । आहार० ज० प० असं०गु० । एवं ओरालि० । कायजोगि० ओघं ।
१३२. ओरालियमिस्से मूलोघो याव अण्णदरवेदणी० ज० ५० विसे० । तदो वेउ० ज० प० असं०गु० । देवगदि ज० प० संखज्जगु० । तिरिक्ख-मणुसाऊणं ज. प० असं०गु० । वेउव्वियकायजो० सोधम्मभंगो याव चक्खुदं० ज० प० विसे० । तदो तिरिक्ख-मणुसाऊणं ज० प० संखेंज्जगु० । अण्णदरे गोद० ज० प० विसे० । अण्णदरवेदणी० ज० प० विसे । वेउव्वियमिस्स० एवं चेव । आउ० णत्थि ।
उससे अवधिदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अचक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे चक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अन्यतर आयुका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे अन्यतर गोत्रका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अन्यतर वेदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है।
१३१. वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंमें चक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके प्राप्त होने तक ओघके समान भङ्ग है। उससे आगे तिर्य और मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे अन्यतर गोत्रका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अन्यतर वेदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे नरकगतिका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे नरकायु और देवायुका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए । काययोगी जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है।
१३२. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में अन्यतर वेदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थान के प्राप्त होनेतक मूलोघके समान भङ्ग है । उससे आगे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें चक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके प्राप्त होने तक सौधर्मकल्पके समान भङ्ग है। उससे आगे तिर्यश्वायु और मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । उससे अन्यतर गोत्रका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अन्यतर वेदनीयका जघन्य प्रदेशाम विशेष अधिक है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें इसी प्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि आयुकर्म नहीं है।
१. आ०प्रतौ 'वेउन्वि० स०प० एवं चेव । आउ० असंखेजगु० ।' इति पाठः ।
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