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सम्पादकीय (प्रथम संस्करण, १९५६ से
अनुभागबन्ध षट्खण्डागम के छठे खण्ड का तीसरा भाग है। इन का सम्पादन व अनुवाद लिखकर प्रकाशनयोग्य बनाने में दो वर्ष का समय लगा है। कारण कि हमारे सामने ग्रन्थ की एक ही प्रति रही है और जो है वह भी पर्याप्त मात्रा में त्रुटित है। जब दूसरे भाग का अनुवाद कर रहे थे, तभी इस प्रति की यह स्थिति हमारे ध्यान में आयी थी । अधिकारी विद्वानों से हमने इसकी चर्चा भी की थी। उनका कहना था कि जिस स्थिति में प्रति उपलब्ध है. उसे सम्पादित कर प्रकाशन योग्य बना देना उचित है। यद्यपि यह सम्भव था कि गुणस्थानों व मार्गणास्थानों की बन्ध योग्य प्रकृतियों की तालिका को सामने रखकर आवश्यक संशोधन कर दिया जाय। स्थितिबन्ध प्रथम पुस्तक में कहीं-कहीं ऐसा किया भी गया है। पर ऐसा करना एक तो सब प्रकरणों में सम्भव नहीं है। कुछ ही ऐसे प्रकरण हैं जिनमें संशोधन किया जा सकता है। अधिकतर प्रकरणों के लिए तो हमें मूल प्रति के ऊपर ही आश्रित रहना पड़ता है। दूसरे भय होता था कि इससे कहीं नयी अशुद्धियों को जन्म देने के दोष का भागी हमें न बनना पड़े और इसलिए स्थितिबन्ध की द्वितीय पुस्तक को हमने मूल प्रति के अनुसार ही सम्पन्न कर प्रकाशन के योग्य बनाया
था।
इस परिस्थिति से उत्पन्न कमियों और त्रुटियों का हमें भान था। स्वभावतः समालोचकों का ध्यान भी उस ओर गया। अतएव हम पाठशोधन के लिए यथोचित सामग्री प्राप्त करने की ओर विशेष प्रयत्नशील हुए। भारतीय ज्ञानपीठ के सुयोग्य मन्त्री जितने विचारक हैं, उतने ही दूरदर्शी भी हैं। उन्होंने सब स्थिति को समझकर मूडबिद्री प्रति से मिलान करने की हमें अनुज्ञा दे दी और कहा कि इस कार्य के सम्पन्न करने में जो व्यय होगा, उसे भारतीय ज्ञानपीठ खुशी से वहन करेगा। आप स्वयं लिखा-पढ़ी करके वहाँ से प्रति मिलान की व्यवस्था कर लीजिए । तदनुसार हमने मूडबिद्री, श्री पण्डित नागराजजी शास्त्री को पत्र लिखा । किन्तु उनका उत्तर आया कि यहाँ की कनडी प्रति दिल्ली जीर्णोद्धार के लिए गयी है । यहाँ आने पर हमें और प्रबन्ध समिति को इस कार्य की व्यवस्था करने में प्रसन्नता ही होगी। व्यक्तिशः इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए हम हर तरह से तैयार हैं।
किन्तु इसी बीच यह भी विदित हुआ कि महाबन्ध की ताम्रपत्र प्रति सम्पादित होकर शा० जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्था की ओर से छपी है। फलस्वरूप शा० जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्था के सुयोग्य मन्त्री श्री सेठ बालचन्द देवचन्द जी शहा को लिखा गया। उस समय वे उत्तर भारत के तीर्थक्षेत्रों की यात्रा के लिए आये हुए थे, इसलिए उनसे व्यक्तिशः भी सम्पर्क स्थापित किया गया और आवश्यकता का ज्ञान कराते हुए प्रत्यक्ष में इस विषय की बातचीत की गयी। परिणामस्वरूप उन्होंने घर पहुँचने पर ताम्रपत्र मुद्रित प्रति भिजवाने का आश्वासन दिया। यद्यपि उन्हें कई कारणों से प्रति भेजने में विलम्ब हुआ है, परन्तु अन्त में योग्य निछावर देकर यह प्रति भारतीय ज्ञानपीठ को उपलब्ध हो गयी है, जिससे अनुभागबन्ध के प्रस्तुत संस्करण में उसका उपयोग हो सका है। इसलिए यहाँ इस प्रसंग से इन दोनों प्रतियों के पाठ आदि के विषय में सांगोपांग चर्चा कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। हमें प्रस्तुत संस्करण के दस फार्म छपने पर यह प्रति मिल सकी थी, इसलिए इन फार्मों में न तो हम इस प्रति के पाठ ही ले सके और न इस प्रति के आधार से प्रस्तुत प्रति में सुधार आदि कर सके। अतएव सर्वप्रथम यहाँ तक के दोनों प्रतियों के पाठभेद देकर इस चर्चा को आगे बढ़ाना उपयुक्त प्रतीत होता है। यहाँ और टिप्पणियों में जो प्रति हमारे पास प्रेस कापी के रूप में है, उसका संकेताक्षर आ० है टिप्पणी में कहीं-कहीं 'मूलप्रती' पद द्वारा भी इसी प्रति का उल्लेख किया गया है और ताम्रपत्र मुद्रित प्रति का संकेताक्षर ता० है इस दोनों प्रतियों के दस फार्म तक के पाठभेदों की तालिका इस प्रकार है
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