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________________ अन्तरपरूवणा १२३. देवेसु धादि०४ उक्क० जह० एग०, उक्क० अट्ठारस साग० सादि । अणु० जह• एग०, उक्क० बेसम० । वेद०-णामा-गोदा० उक्क० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसूणा० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसम० । आउ० उक० अणु० एग०, उक्क० छम्मासं देसू० । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो द्विदीओ णेदव्वाओ। १२४. एइंदि० सत्तण्णं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरे अंगुल० असंखें । यादरपजत्ते संखेन्जाणि वाससहस्साणि । सबसुहुमाणं उक्क० जह० एग०, उक्क० असंखेंजा लोगा। एवं वणप्फदि-णियोदाणं । सव्वेसिं० अणु० जह० एग०, उक्क० बेसम० । आउ० उक्क० जह० एग०, उक्क० सत्तवस्ससहस्साणि सादि० अन्तरकालका निषेध किया है । तथा उपशमश्रेणिमें उपशान्तमोह हो जानेपर इनका बन्ध नहीं होता अन्यत्र सर्वदा इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता रहता है, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उस्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । यद्यपि उपशान्तमोहका मरणकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है पर ऐसा जीव मरकर नियमसे देव ही होता है और यहाँ मनुष्यत्रिकका प्रकरण है । इसलिए यहाँ इस कालका ग्रहण नहीं किया जा सकता है । शेष कथन सुगम है ।। १२३. देवोंमें चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महिना है। इसी प्रकार सब देवोंमें अपनी-अपनी स्थितिको जानकर अन्तरकाल ले आना चाहिए। विशेषार्थ-देवोंमें चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सहस्रार कल्प तक ही होता है । किन्तु यह बात वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके विषयमें नहीं है । उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वार्थसिद्धिके देवके भी होता है । यही कारण है कि सामान्य देवोंमें चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर और वेदनीय, नाम व गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। अन्य देवोंमें जिसकी जो उत्कृष्ट स्थिति हो उसे ध्यानमें रखकर वहाँ सातों कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल ले आना आहिए। उन उन देवोंमें यह अन्तर काल लाते समय यह सामान्य देवोंकी अपेक्षा प्राप्त किया गया सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल विवक्षित नहीं रहता इतना स्पष्ट है। शेष कथन सुगम है। __ १२४. एकेन्द्रियोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । बादर एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है । सब सूक्ष्मों में उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। इसी प्रकार सब वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। इन सब जीवोंके अनुस्कष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। आयुकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रारम्भके तीनमें साधिक सात हजार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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