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प्राथमिक (प्रथम संस्करण, १६५६ से)
धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों का उद्धार वर्तमान युग की सबसे महान् जैन साहित्यिक प्रवृत्ति कही जा सकती है। दिगम्बर जैन परम्परानुसार तो ये ही ग्रन्थ-निधियाँ हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीर की द्वादशांग वाणी से जुड़ता है। धवल और महाधवल दोनों ही षट्खण्डागम के 'खण्ड' हैं। कितने हर्ष की बात है कि उधर षट्खण्डागम के पाँचवें खण्ड वर्गणा व उसकी चूलिका का प्रकाशन पूरा होने आ रहा है, और इधर उसका छठा भाग महाबन्ध भी पूर्ण प्रकाशन के उन्मुख हो रहा है। इस महान् श्रृंखला की कड़ियाँ भी अब ऐसी आकर जुड़ी हैं कि वर्तमान में दोनों का ही मुद्रण कार्य बनारस में चल रहा है। एक ओर यह कार्य पूरा होने आ रहा है, दूसरी ओर श्रावकोत्तम साहू शान्ति प्रसादजी के दान व प्रेरणा से बिहार सरकार ने भगवान् महावीर के जन्मस्थान वैशाली में जैन विद्यापीठ की स्थापना का निश्चय कर उस ओर समुचित योजना व कार्य का आरम्भ भी कर दिया है। इस जैन विद्यापीठ में भगवान् महावीर के उपदेशों का, उनकी संसार को अहिंसा रूपी अनुपम देन का तथा उनकी परम्परा में समुत्पन्न प्रचुर साहित्य का उच्च अध्ययन व अनुसन्धान होगा। उधर भारत की राष्ट्रीय एवं राजकीय रीति-नीति में अहिंसा ने अपना घर कर लिया है और उसकी आनुषंगिक मैत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थ भावनाओं ने देश के एक महान् सपूत के हृदय को आलोडित कर 'पंचशील' को जन्म दिया है, जिसकी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी प्रतिष्ठा हो गयी है। परिणामतः युद्ध से त्रस्त तथा सांहारिक अस्त्र-शस्त्रों से भयाकुल मानव-जाति को एक दिव्य दृष्टि, एक नयी चेतना, एक अपूर्व आशा प्राप्त हुई है। क्या हम इसे महावीर-देशना की, जैन तत्त्वज्ञान की धर्म-विजय नहीं कह सकते? क्या कोई अदृष्ट हाथ संसार को हमारी एक विशिष्ट दिशा में नहीं झुका रहा है?
___ इस स्वर्ण-सन्धि का जैन समाज पूरा लाभ उठा रहा है, यह तो हम नहीं कह सकते; तथापि थोड़े-बहुत प्रभावशाली धर्म-बन्धुओं में जो जागृति उत्पन्न हो गयी है, उसी के आधार पर हमें अपना भविष्य कुछ अच्छा दिखाई देने लगा है। भारतीय ज्ञानपीठ इसी जागति का एक परिणाम है। इसके द्वारा जो धार्मिक ग्रन्थों का प्रकाशन हो रहा है, वह एक गौरव की वस्तु है।
प्रस्तुत भाग के 'सम्पादकीय' में प्रतियों के पाठ-भेद सम्बन्धी जो बातें बतलायी गयी हैं, वे ध्यान देने योग्य हैं। प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन में समय-समय पर लिखी गयीं नाना प्रतियों के मिलान द्वारा सम्पादक उस पाठ पर पहुँचने का प्रयत्न करता है जो मौलिक प्रति में सम्भवतः रहा होगा। किन्तु हमारे सम्मुख यह शोचनीय परिस्थिति उत्पन्न हुई है कि परम्परागत ताडपत्रीय प्रति एकमात्र होते हुए भी उसकी तात्कालिक प्रतिलिपियों द्वारा नाना पाठ-भेद उत्पन्न हो रहे हैं। अत्यन्त खेद की बात है कि हमारे धर्म के इन आकार ग्रन्थों के सम्पादन में भी हम आधुनिक वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करने में असमर्थ हैं। पूना में महाभारत व बड़ौदा में रामायण के सम्पादन सम्बन्धी आयोजन को देखिए, और हमारे इन श्रेष्ठतम सिद्धान्त-ग्रन्थों के उद्धार, सम्पादन, अनुवाद व प्रकाशन की स्थिति को देखिए! आज की सीधी, सरल और सर्वथा प्रमाणभूत सम्पादन-प्रणाली तो यह है कि सम्पादक के सन्मुख या तो प्राचीन प्रतियाँ
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