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________________ महाबंध अणुभागबंधाहियारे कालपरूवणा ४०. कालं दुविहं - जहण्णयं उकस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि० ओघे० आदे० । ओघे० घादि०४ उक० अणुभागबंधो केवचिरं कालादो होदि १ जह०एग०, उक्क० बेसमयं । अणु० जह० एग०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गल० । वेद०-णामा-गोदा० जहण्णुक्क०एग | अणु० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो [सादिओ सपज्जवासिदो ] वा । यो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णि० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपग्गल • देस्र० । आउ० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो ० । एवं आग० याव अणाहारग ति । एवं ओघभंगो मदि० सुद० असंज० - अचक्खु०- भवसि ०मिच्छा० । णवरि भवसि० अणादिओ अपज्जवसिदो णत्थि । २६ कालप्ररूपणा ८०. काल दो प्रकारका है—जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । ओबसे चार घाति कर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परावर्तनके बराबर है । वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृट अनुभागबन्धका काल तीन प्रकारका है - अनादि - अनन्त, अनादि- सान्त और सादि-सांत | जो सादि-सान्त काल है उसका यह निर्देश है-जयन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । आयु कर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त्त है। इसी प्रकार आयु कर्मका अनाहारक मार्गणा तक काल जानना चाहिए। इसी प्रकार के समान मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, भव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंमें अनादि अनन्त विकल्प नहीं है । विशेषार्थ-चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे होता है । इनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है, इसलिए चार घाति कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। जो जीव इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके एक समय के लिए अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है और पुनः उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करने लगता है, उसके इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका एक समय काल उपलब्ध होता है । तथा जो अनन्त काल तक एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक पर्यायोंमें परिभ्रमण करता रहता है, उसके इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अनन्त काल उपलब्ध होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल कहा है । वेदनीय, नाम और गोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें अपने-अपने बन्धकाल के अन्तिम समय में होता है। तथा इसके पहले नियमसे अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है । उसमें भी जो अभव्य होते हैं उनके इस उत्कृष्टकी अपेक्षा सदा अनुकृष्ट अनुभागबन्ध होता रहता है और भव्योंके उपशान्तमोह होनेके पूर्व तक अनादि कालसे अनुष्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है । किन्तु उपशमश्रेणि पर आरोहण करनेके बाद वह सादि हो जाता है। जो जघन्यसे अन्तर्मुहूर्तकाल तक और उत्कृष्ट रूपसे कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक होता रहता है । यही कारण हैं कि इन तीनों कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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