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________________ ४२० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणंतका० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । सादासाद०-समचदु०-पसत्थ०-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-जस०-अजस० ज० ज० ए०, उ. असंखेंजा लोगा। अज० ओघं । छण्णोक० ज० ज० ए०, उ. अणंतफा० । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । णवंस०-ओरालि०-ओरालि०अंगो०-णीचा० ज० ज० ए०, उ० अणंतका० । अज० ज० ए०, उ० तिण्णिपलि० देसू० । चदुआयु०-वेव्वियछ०-मणुसग०३ ज० अज० ओघं । तिरिक्वगदि-तिरिक्खाणु०-उज्जो० ज० ज० ए०, उ० अणंतका० । अज० ज० ए०, उ० ऍक्कत्तीसं० सादि । चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ ज० ओघं । अज० गqसगभंगो। पंचसंठा०--पंचसंघ०--अप्पसत्थ०--दूभग--दुस्सर--अणादें ज० ओघं । अज० मदि०भंगो। अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यश कीर्ति और अयश कीर्तिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेद, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । चार श्रायु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके जघन्य अनुभागवन्धका अन्तर ओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नपुंसकवेदके समान है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर मत्यज्ञानियोंके समान है। विशेषार्थ-अभन्यों पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध संज्ञी जीव करता है और इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि और पाँच संस्थान आदिके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर जिस प्रकार ओघमें स्पष्ट करके कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। छह नोकषायोंके जघन्य स्वामित्वको देखते हुए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। इसी प्रकार नपुंसकवेद आदिके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। तथा नपुंसकवेद आदिका बन्ध उत्तम भोगभूमिमें कुछ कम तीन पल्य तक नहीं होता, अत: इनके अजघन्य अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध सातवें नरकका नारकी करता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। तथा नौवें अवेयकमें इनका बन्ध नहीं होता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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