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________________ अंतर परूवणा ४१५ उ० सत्तारस- सत्तसाग० सादि० णिग्गदस्स मुहु० । अज० सादभंगों । वेडव्वि०वेव्वि० अंगो० ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० सत्तारस- सत्तसाग ० सादि० । चदुसंठा० पंचसंघ० ज० ज० ए०, उ० सत्तारस- सत्तसाग० सादि० । अज० णपुंसकभंगो । हुंड० - अप्पसत्थ०-10 -- दूभग- दुस्सर - अणादें० ज० ज० ए०, उ० सत्तारस-सत्तसाग० सादि० । अज० इत्थिभंगो | णीलाए तित्थय० ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । काऊ तित्थ० णिरयभंगो | 1 जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक सह सागर और साधिक सात सागर है । यहाँ साधिकसे निकलनेवालेका एक अन्तमुहूर्त लिया है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है। चार संस्थान और पाँच संहननके जधन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नपुंसकवेदके समान है । हुण्डसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर स्त्रीवेदके समान है। नीललेश्या में तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । कापोत लेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है । विशेषार्थं - नील लेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक सत्रह सागर है और कापोत लेश्याका साधिक सात सागर है । इस हिसाब से यहाँ अन्तरकाल ले आना चाहिए । उसमें प्रथम दण्डक में कही गई प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध नारकी जीव करता है, इसलिए इनके जधन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर कहा है । स्त्रीवेद आदि तीन प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी उक्त प्रमाण कहनेका यही कारण है । मात्र जघन्य अनुभागबन्धका यह अन्तर प्रारम्भमें और अन्त में जघन्य अनुभागबन्ध कराके ले आना चाहिए और अजघन्य अनुभागबन्धका यह अन्तर मध्य में उतने काल तक सम्यदृष्टि रख कर ले आना चाहिए। इसी प्रकार पाँच नोकषाय आदिके जघन्य अनुभागबन्धका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर ले आना चाहिए । तिर्यञ्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध बादर अग्निकायिक और वायुकायिक जीव करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा सम्यग्दृष्टि के इनका बन्ध नहीं होता और इन लेश्याओं में सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। मनुष्यगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध तीन गतिके जीव करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर कहा है । कारणका निर्देश मूल्यमें ही किया है । वैक्रयिकद्विक, चार संस्थान आदि व हुण्डसस्थान आदिके अन्तरका खुलासा जिस प्रकार १. श्रा० प्रतौ अज्ज० ज० ज० ए० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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