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________________ अंतरपरूवणा ३८३ ६०१. एइंदिएमु धुविगाणं ज० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा। बादरे अंगुल० असंखें। पज्जत्ते संखेंजाणि वाससह० । सुहुमे असंखेंज्जा लोगा। अज० ज० ए०, उ. बेस० । तिरिक्खाउ० [ज.] णाणाभंगो । अज० ज० एग०, [ उक्क० ] पगदिअंतरं । मणुसायु० ज० अज० उकस्सभंगो । ramarimammimmarrrrrarimmmmmmmmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrmernm में सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल ३१ सागर है। उसमें भी यहाँ कुछ कम ३१ सागर विवक्षित है, क्योंकि प्रारम्भमें और अन्तमें मिथ्यादृष्टि रख कर इन प्रकृतियोंका बन्ध कराना है। इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है। मात्र इनका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख जीवके होता है, इतना समझ कर अन्तर काल लाना चाहिए। यह सम्भव है कि साता आदि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध भवके प्रारम्भमें और अन्तमें हो मध्यमें न हो, अतएव इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तथा परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनका अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त काल तक बन्ध नहीं होता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त कहा है। स्त्रीवेद आदिका बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है । यहाँ मध्यमें कुछ कम इकतीस सागर काल तक सम्यग्दृष्टि रख कर यह अन्तर लाना चाहिए । दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है,यह स्पष्ट ही है । तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध सहसार कल्प तक ही होता है, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। मात्र अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय मध्यके काल में सम्यग्दृष्टि रखना चाहिए और जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर लाते समय मध्यमें जघन्य अनुभागबन्धके योग्य परिणाम नहीं कराने चाहिए। मनुष्यगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सहस्रार कल्प तक ही होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है और परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सातावेदनीयके समान अन्तमुहूर्त कहा है। एकेन्द्रियजाति आदिका बन्ध ऐशान कल्प तक होता है, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है। मात्र जघन्य अनुभागबन्धकी दृष्टिसे इतने काल तक बीचमें जघन्य अनुभागबन्धके योग्य परिणाम न करावे और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर लाने के लिए मध्यमें उसे सम्यग्दृष्टि रखे। औदारिकशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वसंक्लिष्ट परिणामोंसे होता है और ये परिणाम सहस्रार कल्प तक ही सम्भव हैं, अत: इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। समचतुरस्त्रसंस्थान आदिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टिके होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है । यह अन्तर काल सामान्य देवोंकी अपेक्षा कहा है। भवनवासी आदि प्रत्येक देवनिकायमें और विमानवासी देवोंके अवान्तर भेदोंमें कहाँ कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है और स्वामित्वसम्बन्धी क्या विशेषता है. इसे जानकर अन्तरकाल साध लेना चाहिए। ६०१. एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। बादरोंमें अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है। सूक्ष्मोंमें असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। तियश्चायुके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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