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________________ 'अंतरपरूषणा ३६७ ५६०. उवसम० अढक०-देवगदि०४-आहारदु० उ० णत्थि० अंतरं। [अणु० ज० उ० अंतो० । हस्स-रदि० उ०] अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । मणुसगदिपंचग. उ० ज० ए०, उ. अंतो०। अणु० ज० ए०, उ० बेसम०। सेसाणं उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० ए०, उ० अंतो०। वर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान कहा है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरके निषेधका यही कारण है जो असातावेदनीयका कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान देखकर यह ओघके समान कहा है। मात्र यहाँ आठ कषायों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय सम्भव न होकर अन्तमुहूर्त है, अतः यह अलगसे कहा है। इसका कारण यह है कि ओघसे इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर सम्भव हो एवबन्धिनी होने पर भी इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय बन गया था पर यहाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर सम्भव नहीं है, इसलिए संयतासंयत और संयत गुणस्थानका जघन्य काल ही यहाँ जघन्य अन्तर समझना चाहिए। हास्य और रति परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। देवायुका मनुष्योंके और मनुष्यायुका देवोंके बन्ध होता है और दोबार प्रत्येक आयुके बन्धमें उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है, अतः दोनों आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तरका स्पष्टीकरण हम आभिनिबोधिक मार्गणामें कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार साधिक पूर्वकोटि अन्तरकाल घटित हो,वैसा करना चाहिए। देवगति चतुष्क और आहारकद्विकका देवोंके बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर तेतीस सागर कहा है। परन्तु आहारकद्विकका संयम की प्राप्तिके पूर्व मनुष्योंके भी वन्ध नहीं होता, अतः यह साधिक तेतीस सागर कहा है। दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अभिमुख हुए जीवके पश्चन्द्रियजाति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। और यदि स्वस्थानमें इनका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध मानते हैं , तो उनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर पञ्चद्रियजाति आदिका कुछ कम छियासठ सागर और तीर्थङ्कर प्रकृतिका साधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। तथा इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल एक समय मानने पर इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर एक समय प्राप्त होता है और जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय मानने पर जघन्य अन्तर एक समय उत्कृष्ट अन्तर दो समय प्राप्त होता है सो विचार कर आगमके अनुसार व्यवस्था कर लेनी चाहिए। ५९०. उपशमसम्यक्त्वमें आठ कपाय, देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। हास्य व रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मनुष्यगतिपञ्चको उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । शेप प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अ विशेषार्थ-उपशमसम्यक्त्वमें मनुष्यगतिपञ्चकका सर्वविशुद्ध देव नारकीके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, अतः इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त बन जाता है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं बनता । कारण स्वामित्वको देखकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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