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________________ अंतरपरूवणा ५८६. सुक्काए पंचणा ० - बदंसणा ० - असादा ०- बारसक० सत्तणोक० अप्पसत्थ०४उप०-- अथिर-- अनुभ--अजस०-- पंचंत० उ० ज० ए०, उ० अट्ठारससा ० सादि० । अणु० ज० ए०, उ० तो० । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणु०४ - इत्थि० - णवुंस ०पंचसंठा ० - पंच संघ० -- अप्पसत्य०--- दूर्भाग-- दुस्सर - अणादें--णीचा० उ० ज० ए०, उ० अट्ठारससा • सादि० । अणु० ज० ए०, उ० ऍकतीसं ० सू० । सादा०-- पंचिंदि०तेजा०-- क० -- समचदु० -- पसत्थ०४ - अगु० ३ - पसत्थवि ० --तस०४ - थिरादिछ० - णिमि०तित्थ० उच्चा० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । मणुमायु० उ० अणु० ज० ए०, उ० छम्मासं देमू० । देवायु० उ० ज० ए०, उक्क० अंतो० । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । मणुस० ओरालि० - ओरालि० अंगो० - मणुसायु० उ० ज० ए०, उ० तैंतीसं देमू० । अणु० ज० ए०, उ० बेस० । देवगदि०४ उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० तो ०, दो सागरके अन्तरसे इनका बन्ध सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । देवगतिके समान तैजसशरीर आदिके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका स्वामी है, अतः इनके भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध के अन्तरका निषेध किया है। तथा इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्धका यह काल एक समय है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है । पद्मलेश्या में औदारिकशरीर के साथ औदारिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध होता है, क्योंकि इसके एकेन्द्रियजाति और स्थावरका बन्ध नहीं होता, अतः यहाँ औदारिक ङ्गोपाङ्गको प्रथम दण्डकमें परिगणित करने को कहा है। तथा पञ्च ेन्द्रियजाति और त्रसका भी नियमसे बन्ध होता है, अतः इनका अन्तर वैक्रियिकशरीर के समान प्राप्त होनेसे उसके साथ इनकी परिगणना की है। शेष स्पष्ट ही है । ३६१ ५८६. शुक्ललेश्या में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकपाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशकीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागचन्धका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । सातावेदनीय, पञ्चद्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त वर्णं चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । देवायुक्रे उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । मनुष्यगति दारिकशरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और मनुष्यगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका १. प्रा० प्रतौ० ए० अंतो० इति पाठ: । ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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