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________________ ३३८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५७०. इत्थिवे'. पंचणा०-छदसणा०-चदुसंज०-भय-दु०-अप्पसत्य०४-उप०पंचंत. उ० ज० एग०, उ० कोयहिदी० । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । थीणगिदि ३-मिच्छ०-अणंताणुबं०४-इत्यि०-णस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-पंचसंठा-पंचसंघ-निरिक्खाणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्य०-थावर-दूभग-दुस्सर-अणादें-णीचा. उ० ज० ए०, उ० कायहिदी० । अणु० ज० ए०, उ० पणवण्णं पलि० देसू० । सादा०. पंचिदि०-समचदु०-पर०-उस्सा०-पसत्थ-तस०४-थिरादिछ०-उच्चा० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो०। आसादा०-पंचणोक०-अथिरादि० उ० ज० एग०, उ० कायहिदी०। अणु० सादभंगो। अट्टक० उ० ज० ए०, उ० कायहिदी० । अणु० उसका निषेध किया है। वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है तथा स्वामित्व सम्बन्धी परिणामों की समता भी देखी जाती है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी प्ररूपणा मनोयोगी जीवों के समान बन जानेसे वह उनके समान कही है। कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय होनेसे यहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं बनता, यह स्पष्ट ही है। मात्र सातावेदनीय आदि कुछ ऐसी प्रकृतियाँ हैं जिनका यहाँ पर भी परिवर्तन सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है । यहाँ शेष परावर्तमान प्रकृतियाँ बन्धकी विशेषताके कारण परावर्तमान नहीं होती, ऐसा यहाँ अभिप्राय समझना चाहिए। उदाहरणार्थ, यहाँ जिसके त्रससम्बन्धी प्रकृतियोंका बन्ध होता होगा,उसके एक साथ बादर स्थावर सम्बन्धी प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होगा। कार्मणकाययोगी अनाहारक ही होते हैं, अतः इनका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान कहा है। ५७०. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। सातावेदनीय, पश्चन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र संस्थान, परघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । असातावेदनीय, पाँच नोकषाय और अस्थिर आदि तीन के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर १. ता. पा. प्रत्योः एग० इत्थिवेद इति पाठः । २. ता. प्रती उ० ए० इति पाठः । ३. ता. प्रा. प्रत्योः थावर० सुहम अपजत्त साधार० दूभग० इति पाठ। ४. ता. प्रतौ ज.ए. पणपएणं इति पाठः । ५, ता. श्रा०प्रत्योः अथिरादिछ० उ० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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