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________________ अंतरपरूवणा ३१७ अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिका यह अन्तर लाते समय तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जीवको उपशमश्रेणि पर आरोहण कराके और वहाँ क्रमसे एक समय काल तक और अन्तर्मुहूर्त काल तक अबन्धक रख कर यथाविधि पुनः बन्ध कराके यह अन्तरकाल ले आना चाहिए । जो जीव संयमासंयम आदिका धारी होता है, उसके अप्रत्याख्यानावरण चारका और जो संयमका धारी होता है, उसके प्रत्याख्यानावरण चारका बन्ध नहीं होता और इन संयम संयम व संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसके बाद जीव नियमसे असंयमी होता है, अतः यहाँ इन आठ कपायों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और सम्प्राप्ता पाटिका संहननका द्वितीयादि गुणस्थानों में और शेषका तृतीयादि गुणस्थानों में बन्ध नहीं होता। साथ ही भोगभूमि में भी पर्याप्त अवस्थामें इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए यदि कोई जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कुछ कम दो बार छियासठ सागर काल तक परिभ्रमण करने के पूर्व उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न हो जाय तो कुछ कम तीन पल्य अधिक कुछ कम दो छियासठ सागर कालका अन्तर देकर इनका बन्ध होगा। यही कारण है कि यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक कुछ कम दो छियासठ सागर कहा है । एकेन्द्रिय पर्याय में परिभ्रमण करते हुए नरकायु और नरकगतिद्विकका तो बन्ध होता ही नहीं । मनुष्यायुका बन्ध सम्भव है, पर तिर्यञ्च पर्याय में रहनेका उत्कृष्ट काल अनन्तप्रमाण होनेसे जो जीव इतने काल तक तिर्यञ्च है उसके मनुष्यायुका भी बन्ध नहीं होगा, अतः इन चारों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके समान इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है, अतः यहाँ इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण कहा है। देवाका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाले अप्रमत्तसंयत जीवके होता है और अप्रमत्तसंगत गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, अतः यहाँ इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है। तथा एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय तकके जीवके देवायुका बन्ध होता ही नहीं, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। जो दोबार छियासठ सागर काल तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के साथ रहकर अन्तिम ग्रैवेयकमें इकतीस सागर कालतक मिध्यात्व के साथ रहता है, उसके तियैवगतिद्विकका इतने काल तक बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर कहा है। मनुष्यगतिद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टि देव नारकी के होता है । यह अवस्था पुनः अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन के बाद उपलब्ध होती है, अतः यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा इनका यदि अधिक से अधिक काल तक बन्ध ही न हो तो अभिकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं होता और यह उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। देवगति चतुष्कका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा अनन्त काल तक एकेन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय पर्यायमें इनका बन्ध ही नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है । चार जाति आदिका बाईस सागर तक छठे नरक में, फिर वहाँ से सम्यक्त्व के साथ निकले हुए जीवके दो बार छियासठ सागर कालके भीतर फिर ३१ सागर आयुके साथ उत्पन्न हुए नौवें मैवेयकमें बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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