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________________ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. ३१४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५५४. आहारे धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स च ज० ओघं। अज० ज० एग०, उ० अंगुल० असंखे । सेसं ओघं । णवरि मिच्छ० अज० ज० खुद्दाभव०तिसमयूणं। तित्थ० अज० ज० एग० । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं कालं समत्तं । १४ अंतरपरूवणा ५५५. अंतरं दुवि०-जह• उक्क० । उक्क० पगदं । दुवि०-ओघे० आदें। ओघे० पंचणा-छदसणा-असादा०-चदुसंज०-सत्तणोक-अप्पसत्य०४-उप०-अथिरअसुभ-अजस०-पंचंत० उक्क० अणुभागबंधंतरं केव० १ ज० एग०, उक्क० अणंतकालअजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ५५४. आहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और तिर्यश्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष भङ्ग श्रोध के समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवों के समान भङ्ग है। विशेषार्थ-ओघसे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका और तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध एक समय तक होता है । वह काल यहाँ भी सम्भव है, इसलिए यह ओघ के समान कहा है। तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध उपशमश्रेणिसे उतरते समय और सासादनमें एक समय तक होकर मरकर जीवके अनाहारक हो जाने पर अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय बन जाता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा आहारकोंकी कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। मिथ्यात्व गुणस्थानमें आहारक तीन समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण अवश्य रहता है, और इस कालमें मिथ्यात्वका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए यहाँ मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल उक्त प्रमाण कहा है। उपशमश्रेणीसे उतर कर और एक समय तक तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्धकर मरणद्वारा जीवका अनाहारक हो जाना सम्भव है। इसीसे यहाँ इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। १४ अन्तरप्ररूवणा ५५५. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका कितना अन्तर है । जघन्य अन्तर एक १. ता. प्रतौ छदसणा• चदुसंज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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