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________________ कालपरूवणा ३०६ ५४७. भवसि० ओघं। अब्भवसि० धुवियाणं पसत्थापसत्थ०४ ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० अणंतका० । सेसाणं मदि०भंगो। णवरि सव्वाणं ज० अपज्जत्तभंगों । अजअणुभंगो । ५४८. खइगसम्मा० पंचणा०-छदंसणा०-बारसक०--पुरिस०-भय--दु०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० एग० । अज० ज० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । सादासाद०--दोआयु०--तिण्णियुग० ज० अज० ओघं । हस्स--रदि०४-आहारदुगं काल साधिक तेतीस सागर कहा है। जो द्रव्यलिंगी मुनि नौवें अवेयकमें उत्पन्न होता है, उसके स्त्यानगृद्धि ३ आदि ८ प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा है। साता आदि २५ और स्त्रीवेद आदि ८ ये अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त कहा है। यहाँ देवगति चतुष्कके विपयमें पीतलेश्यामें किया गया स्पष्टीकरण जान लेना चाहिए। हास्यादि ४ का भंग ओघके समान कहनेका यही अभिप्राय है। मनुष्यगति पञ्चकका सर्वार्थसिद्धिमें निरन्तर बन्ध होता है, अत: इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर कहा है। ५४७. भव्यमार्गणाका भङ्ग ओघके समान है। अभव्योंमें ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ, तथा प्रशस्त वर्णचतुष्क और अप्रशस्त वर्णचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवों के समान है। इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका काल अपर्याप्त जीवोंके समान है और अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टक समान है। विशेषार्थ-ओघसे जो काल कहा है वह भव्यमार्गणामें अविकल बन जाता है, अतः इसे ओघके समान कहा है। अभव्य मागणामें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका अनन्त काल तक अजघन्य अनुभागवन्ध सम्भव होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है,ऐसा कहनेका अभिप्राय इतना ही है कि अभव्य नियमसे मिथ्यादृष्टि होते हैं, इसलिए मत्यज्ञानी जीवोंमें जो काल कहा है वह यहाँ बन जायगा । पर मत्यज्ञानी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और, अजघन्य अनुभागबन्धका काल यहाँ नहीं बन सकता, क्योंकि मत्यज्ञानी जीव परिणामोंकी विशुद्धि द्वारा क्रमसे सम्यक्त्व आदि गुणोंको भी उत्पन्न करते हैं। यह दूसरी बात कि इन गुणोंके सद्भावमें मत्यज्ञान नहीं होता पर अभव्यों में ऐसी योग्यता नहीं होती. अतः उनमें शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका काल पूरी तरह किसके समान होता है,यह दिखलाते हुए कहा है कि अपर्याप्तकोंके शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जो काल कहा है, वह यहाँ उन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका काल जानना चाहिए और अजघन्य अनुभागबन्धका काल अपने ही अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके कालके समान जानना चाहिए। ५४८. क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु और तीन युगलके १. ता० प्रा० प्रत्योः ज० अप्पसत्धभंगो इति पाठः । २. ता. प्रतौ बारसक. बारसक० (?) पुरिस० इति पाठः। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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