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________________ कालपरूवणा ३०० तस०४ - णिमि० - तित्थय० ज० ज० एग०, उक्क० वे समं । अज० ज० एग०, उक्क० बेसाग० सादि० । एवं पम्माए । णवरि पंचिंदि०-तस० तेजइगभंगो' । ५४६. सुकाए पंचणा ० छंदंसणा ० - बारसक० -भय-दु० - अप्पसत्थ०४ - उपघा ० वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क, निर्माण और तीर्थङ्कर के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर है। इसी प्रकार पद्मलेश्या में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें पञ्च ेन्द्रियजाति और त्रसचतुष्कका भङ्ग तैजसशरीर के समान है । विशेषार्थ - पीतलेश्या में पाँच ज्ञानावरणादि का जघन्य अनुभागबन्ध ऐसे सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयतके होता है जिसके वे परिणाम अन्तर्मुहूर्त के पूर्व नहीं प्राप्त हो सकते तथा पीतलेश्याका उत्कृष्ट काल साविक दो सागर है, इसलिए यहां प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर कहा है । पीतलेश्या के कालमें एक I समय शेष रहने पर जो जीव सासादनसम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके पीतलेश्या में स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुवन्धी चारका अजघन्य अनुभागबन्ध एक समय तक देखा जाता है। इसलिए इ अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है पर इस प्रकार मिध्यात्व गुणस्थान में पीतलेश्याका एक समय काल घटित नहीं होता, इसलिए मिध्यात्व के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहां यह कह देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जीवस्थान कालप्ररूपणा में पीतादि लेश्याका जघन्य काल एक समय संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंत जीवों के ही घटित करके बतलाया है, नीचके गुणस्थानों में नहीं । फिर भी यहां स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्य प्रकारसे नहीं बन सकता है। इससे हमने यह सम्भावना की है । आगे शुक्ललेश्यामें भी यह काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। यहां इन स्त्यानगृद्धि आदिके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल ज्ञानावरण के समान साधिक दो सागर है यह स्पष्ट ही है । सातावेदनीय आदि अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियां हैं इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । यही बात स्त्रीवेद आदि के सम्बन्धमें जाननी चाहिए । यद्यपि सम्यग्दृष्टि मनुष्य के देवगतिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है पर मनुष्य पर्याय में लेश्या अन्तर्मुहूर्तके बाद बदलती रहती है इसलिए पीतलेश्यामें इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होनेसे इन प्रकृतियोंकी परिगणना स्त्रीवेद आदि के साथ की है । सम्यग्दृष्टि देवके निरन्तर पुरुषवेदका ही बन्ध होता है, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल ज्ञानावरण के समान साधिक दो सागर कहा है । हास्यादि चार अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियां हैं, स्वामित्वकी अपेक्षा भी ओघसे यहां कोई विशेषता नहीं है, इसलिए इनका काल के समान कहा है । सम्यग्दृष्टि देवके मनुष्यगति आदिका निरन्तर बन्ध होता है, अतः इनके अन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर कहा है । यही बात पञ्च ेन्द्रियजाति आदि के सम्बन्ध में जाननी चाहिए। पद्मलेश्या में यह सब व्यवस्था बन जाती है । मात्र यहाँ एकेन्द्रियजाति और स्थावरका बन्ध नहीं होनेसे पञ्च ेन्द्रियजाति और सकी ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के साथ परिगणना होती है । यही कारण है कि पद्मलेश्या में इन दो प्रकृतियोंका भङ्ग तैजसशरीर के समान कहा है। - ५४६. शुक्ललेश्या में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, १. ता० प्रतौ बेसा०, श्रा० प्रतो में साग० इति पाठः । २ श्रा० प्रतौ तस०४ तेजइगभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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