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________________ कालपरूवणा ३०५ अज० ज० ए०, उक्क० तो ० । इत्थि० -- पुरिस० - बुंस० - हस्स--रदि -- अरदि --सोगतिरिक्खगदि ०३ - मणुस ० समचदु-- वज्जरि०-- मणुसाणु० -- आदाउज्जो ० --पसत्थ० -सुभगसुस्सर-आदें:० उच्चा० णिरयोघं । तित्थ० ज० एग० । अज० ज० उ० अंतो० । एवं -काऊ । वरि तिरिक्ख ०३ सादभंगो । णीलाए तित्थय० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० अंतो० । काऊए तित्थ० णिरयोघं । बन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यञ्चगतित्रिक, मनुष्यगति, समचतुरस्त्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार नील और कापोत लेश्या में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यगतित्रिकका भंग सातावेदनीयके समान है । तथा नीललेश्या में तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । कापोतलेश्या में तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग सामान्य नारकियोंके समान हैं । विशेषार्थ - कृष्ण लेश्या में पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और मिथ्यात्व गुणस्थानमें स्त्यानगृद्धि तीन आदिका निरन्तर बन्ध होता है । तथा कृष्ण लेश्याका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, अतः इसमें इन प्रकृतियों के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । यहाँ स्त्यानगृद्धि आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मिध्यादृष्टिके अन्तिम समय में होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त तो बन जाता है, पर ज्ञानावरणादिका यह काल कैसे बनता है | यह अवश्य ही विचारणीय है, क्योंकि इनका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टिके कहा है, इसलिए पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय नारकियों के समान बन जानेसे इनके अन्य अनुभाग वन्धका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । यह नहीं हो सकता कि नरक में और सातवें नरकमें तो इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय बन जावे और कृष्णलेश्या में न बने और ऐसी अवस्थामें जब कि कृष्ण लेश्यामें इनके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टि नारकी होता है । इस समस्त प्रकरण पर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'नवरि' कह कर जो अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, वहाँ वह एक समय होना चाहिए। इसकी पुष्टि अन्तरप्ररूपणा से भी होती है । सातावेदनीय आदि अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। स्त्रीवेद आदि हैं तो अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ, पर यहाँ सम्यग्दृष्टिके पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका ही बन्ध होता है। नारकियों में भी इसी प्रकार व्यवस्था है, अतः इन सब प्रकृतियोंकी कालप्ररूपणा नारकियोंके समान बन जानेसे वह सामान्य नारकियोंके समान की है। कृष्ण लेश्यामें मिथ्यात्व के अभिमुख हुए सर्व संक्लिष्ट मनुष्यके तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कहा है । नील और कापोत लेश्यामें 1 ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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