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________________ कालपरूवणा ३०३ ४२. मणपज्जबे पंचणा-छदंसणा०--चदुसंज०-पुरिस०--भय०-दु०--देवगदिपंचिंदि०-वेवि०-तेजा०-क०--समचदु०-वेउव्वियअंगो'०--पसत्यापसत्थ०४-देवाणु०अगु०४-पसत्यवि०--तस०४-सुभग--सुस्सर-आदे०-णिमि० --तित्थ०-उच्चा०--पंचंत० ज० एग० । अज० ज० एग०, उक्क० पुचकोडी देसू० । सेसं ओधिभंगो । एवं संजद-सामाइ०-छेदो० । एवं चेव परिहार०-संजदासं० । णवरि अज० ज० अंतो० । मुहुमसंपरा० अवगदवेदभंगो। साधिक तेतीस सागर है, अतः यहाँ अप्रत्याख्यानावरण चार और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । चतुर्थ और पश्चम गुणस्थानका मिलाकर जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक ब्यालीस सागर है। अतः यहाँ प्रत्याख्यानावरण चारके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट काल साधिक बयालीस सागर कहा है। चार नोकषाय और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है। सम्यग्दृष्टि नारक और देवोंके मनुष्यगति पञ्चकका नियमसे बन्ध होता है। तथा इनका जघन्य काल अन्तमुहर्त और देवोंमें उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । सम्यग्दृष्टि मनुष्यका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है, और इनके निरन्तर देवगति चतुष्कका बन्ध होता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। ५४२. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद भय, जुगुप्सा, देवगति, पश्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, गुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। शेष भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके पाँच ज्ञानावरणादिके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्मसांपरायसंयतका भङ्ग अपगतवेदियोंके समान है। विशेपार्थ-मनःपर्ययज्ञानी जीवों के पाँच ज्ञानावरणादि तथा जिनके तीर्थङ्कर प्रकृति बँधती है, उनके वह भी ध्रुवन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। साथ ही मनःपर्ययज्ञानमें उपशमश्रेणिमें मरणकी अपेक्षा इनका एक समय तक भी बन्ध सम्भव है। कारण कि उपशमश्रेणिमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति होनेके वाद पुनः लौटते समय एक समय तक बन्ध होकर मरने पर मनःपर्ययज्ञानमें इनका अजघन्य अनुभागबन्ध एक समय तक देखा जाता है। तथा मनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। यहाँ शेष प्रकृतियाँ अध्रवबन्धिनी है। अतः उनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल जिस प्रकार अवधिज्ञानी जीवोंके कह आये हैं,उसी प्रकार यहाँ भी वह बन जाता है, अतः वह अवधिज्ञानी जीवोंके समान कहा है। संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयतोंके भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः इनमें सब प्रकृतियों के १. ता. प्रतौ समचदु [ दो ] अंगो० इति पाठः । २. ता० प्रतौ अगु• पसत्थ• इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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