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________________ कालपरूषणा ५०३. सुहुमसंप० अवगदवेदभंगो । असंजदे पंचणा०-- णवदंसणा०-मिच्छ०सोलसक०--भय-- दु०-ओरालि० - अप्पस ०४ - उप०-- पंचंत० उक० अणु० ओघं । एवं सादादिदंडओ ० ० । पुरिस० ओरालि०अंगो० उक्क० ओघं । अणु० ज० एग०, उक्क ० तेत्तीस सा० सादि० । तिरिक्ख ०३ - मणुस ० - मणुसाणु० - वज्जरि० - देवर्गादि०४ तित्थयरं च ओघं । पंचिंदि० समचदु००- पर० - उस्सा० - पसत्थ० - तस४ - सुभग- सुस्सर-आदें० - उच्चा० उ० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । तेजा ० क ०-पसत्थ०४- अगु० - णिमि० उक्क० अणु० ओघं । । अनुभागबन्ध असंयम के अभिमुख होने पर अन्तिम समय में और प्रशस्त प्रकृतियोंका क्षपकश्रेणि में अपनी व्युच्छित्ति अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध उपशमश्रेणिसे उतरते समय एक समय के लिए होकर दूसरे समय में मरकर देव होनेसे एक समय के लिए प्राप्त होता है। और मन:पर्ययज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि होनेसे इतने समय तक भी होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जबन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । इनके सिवा शेष सब परावर्तमान प्रकृतियाँ बचती हैं, इसलिए उनका जैसे अवधिज्ञानीके काल बतला श्राये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित हो जानेसे वह अवधिज्ञानी जीवों के समान कहा है । संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके यह सब काल इसी प्रकार प्राप्त होता है, इसलिए उनके कथनको मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान कहा है । परिहारत्रिशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंमें और सब काल तो इसी प्रकार है सो अपना-अपना स्वामित्वका विचार कर वह पूर्वोक्त प्रकारसे घटित कर लेना चाहिए। मात्र इन दोनों के ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके जघन्य काल में कुछ विशेषता है । बात यह है कि इन दोनों मार्गणाओंकी प्राप्ति श्रेणि में सम्भव नहीं है और इनमें मार्गणाओंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, अतः इनमें सब ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल मुहूर्त कहा है। २६३ ५०३. सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है । असंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका काल श्रधके समान है । इसी प्रकार सातादि दण्डकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघ के समान जानना चाहिए। पुरुषवेद और औदारिक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । तिर्यञ्चगतित्रिक, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, वज्रर्षभनाराचसंहनन, देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है । पञ्च ेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल श्रोघके समान है। विशेषार्थ - अपगतवेद से सूक्ष्मसाम्परायसंयममें अन्य कोई विशेषता नहीं है, इसलिए सूक्ष्मसाम्यराय में धनेवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल अपगतवेदी जीवोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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